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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्पन्न करती है, यह कथन भी युक्त नहीं है, क्योंकि मल्लिका जब आहार आदि दानरूप उपकारसे पुष्पको उत्पन्न करती है तब आकाश भी सब कार्यों में अवकाश संप्रदानरूप उपकारसे सब कार्योंका कारण है, इसलिये पुष्पको भी अपनेमें उत्पन्न तथा वृद्धिके लिये स्थान देनेसे आकाशका पुष्प यह व्यवहार भी अनिवारणीय है, कदाचित् यह कहो कि आकाशकी अपेक्षासे पुष्प भिन्न पदार्थ है इसलिये आकाशका पुष्प यह व्यवहार नहीं हो सकता, तो इसका उत्तर यह है:-आकाशकी अपेक्षा पुष्पको कथंचित् भिन्न कहते हो? अथवा सर्वथा भिन्न? यदि प्रथम पक्ष है अर्थात् आकाशसे पुष्प कथंचित् भिन्न है, तो कथंचित् भिन्न होनेसे जैसे आकाशका पुष्प यह व्यवहार नहीं मानते हो, ऐसे ही मल्लिकाका पुष्प यह व्यवहार भी नहीं होगा क्योंकि मल्लिकाकी अपेक्षासे भी पुष्प कथंचित् भिन्न है और अन्तका पक्ष मानो, अर्थात् सर्वथा पुष्पको आकाशसे भिन्न मानो तो सर्वथा आकाशसे भिन्न नहीं हो सकता, क्योंकि द्रव्यत्वआदिरूपसे कथंचित् आकाश और पुष्पका अभेद भी है, इस कारणसे मल्लिकाका पुष्प और आकाशका पुष्प इन दोनों व्यवहारोंमें कोई विशेष नहीं है अर्थात् अपेक्षामें दोनोंका कथन हो सकता है । इसलिये इस स्याद्वादसिद्धान्तमें सब पदार्थ अस्ति तथा नास्ति स्वरूप हैं ऐसा अन्यवादी कहते हैं। • अथ-अस्त्येव जीव इत्यत्रास्तिशब्दवाच्यादर्थाद्भिन्नस्वभावो जीवशब्दवाच्योऽर्थस्स्यात् ? अभिन्नस्वभावो वा ? यद्यभिन्नस्वभावस्तदा जीवशब्दार्थोऽस्तिशब्दार्थश्चैक एवेति सामानाधिकरण्यविशेषणविशेष्यभावादिकं न स्यात्। घटः कलश इत्यादि सामानाधिकरण्याद्यभाववत्। तदन्यतरपदाप्रयोगप्रसंगश्च । किं च-सत्त्वस्य सर्वद्रव्यपर्यायविषयत्वात्तदभिन्नस्वभावस्यापि जीवस्य तथात्वं प्राप्तमिति सर्वस्य तत्त्वस्य जीवत्वप्रसंगः । यदि पुनरस्तिशब्दवाच्यादर्थाद्भिन्नएव जीवशब्दवाच्योऽर्थः कल्प्यते, तदा जीवस्यासद्रूपत्वप्रसंगः । अस्तिशब्दवाच्यादर्थाद्भिन्नत्वात् । प्रयोगश्च नास्ति जीवः, अस्तिशब्दवाच्यापेक्षया भिन्नत्वात् , शशविषाणवत् । अस्तित्वस्य जीवाद्भिन्नत्ववत्सकलार्थेभ्योपि भिन्नत्वानिराश्रयत्वादभावप्रसंगः । न च-जीवादिभ्यो भिन्नमप्यस्तित्वं समवायेन जीवादिषु वर्तत इति वाच्यं, तस्यान्यत्र निराकरणात् । इति चेत्, अत्रोच्यते । अस्तिशब्दवाच्यजीवशब्दवाच्यार्थयोर्द्रव्यार्थादेशादभिन्नत्वम् , तयोः पर्यायार्थादेशाद्भिन्नत्वमित्यनेकान्तवादिनां न कोपि दोषः, तथा प्रतीतेः । इत्यने व्यक्ती भविष्यति । अब 'अस्ति एव जीवः कथंचित् जीव है इस वाक्यमें अस्ति शब्दके वाच्यं सत्त्वरूप अर्थसे जीव शब्दका वाच्य अर्थ भिन्न स्वभाव है, अथवा अभिन्न स्वभाव है । यदि द्वितीय पक्ष मानते हो अर्थात् अस्ति शब्दका वाच्यार्थ और जीव शब्दका वाच्य अर्थ अभिन्न १ कठिनतासे निवारण करनेके योग्य. २ मल्लिकाके पुद्गल अन्य हैं और पुष्पके अन्य इसलिये दोनों भिन्न २ परमाणुओंसे बननेसे भिन्न हैं. ३ जैसे आकाश द्रव्य है ऐसे ही पुष्प भी पुद्गल द्रव्य है इस प्रकार द्रव्यत्वरूप धर्मसे आकाश और पुष्प अभिन्न हैं. ४ जो शब्दसे कहा जाय । शब्द वाचक होता है और अर्थ उस शब्दसे कहा जाता है इससे वह वाच्य है जैसे अस्ति शब्दसे सत्त्व. ५ अन्य खभाव सत्त्वसे अन्य खभाव असत्त्व (न होना) है. ६ एक खभाव. For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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