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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . प्रश्नः-'पृथिवी इतरेभ्यः भिद्यते गन्धवत्त्वात्' पृथिवी जल आदिसे भिन्न है क्योंकि उसमें गन्धवत्त्व है इत्यादि केवलव्यतिरेकी हेतुवाले अनुमानमें गन्धवत्त्वरूप केवलव्यतिरेकी हेतु अर्थात् जब अपनेसे साध्य पदार्थमें ही रहनेवाले हेतुमें वैधर्म्य साधर्म्यके विनाही है । इस हेतुसे नास्तित्व अस्तित्वस्वभावसे विशेषता होनेसे व्याप्त है वैधर्म्यके तुल्य यह जो दृष्टान्त दिया है सो असंगत है! । ऐसी शंका नहीं कर सकते । क्योंकि पृथिवीमात्रमें रहनेवाले गन्धवत्त्वरूप केवलव्यतिरेकी हेतुमें भी साधर्म्यका संभव घटआदिरूप पृथिवीमें ही है । साध्यके अधिकरणमें वृत्तित्वरूपसे निश्चितत्व यह हम साधर्म्यका स्वरूप पूर्व कह आये हैं सो यहां पृथिवीसे इतर जलादिका भेद साध्य है इसलिये पृथिवीसे अन्यप्रतियोगिक भेदके अधिकरणरूप घटमें गन्धवत्त्वरूप हेतुका होना निश्चित है। इस कारण गन्धवत्त्वरूप हेतुमें साध्यके अधिकरणमें वृत्तित्वसे निश्चितत्वरूप साधर्म्य पूर्ण रूपसे है। और पक्षसे भिन्नमें ही साधर्म्य चाहिये न कि पक्षमें ऐसा नियम तो नहीं है। इसलिये पृथिवीसे अभिन्न धैटरूप पक्षमें भी साधर्म्य जानेसे कोई हानि नहीं है। अथ-शशविषाणादौ नास्तित्वमस्तित्वेन विनापि दृश्यते, इति चेत् ? अत्र वदामः । गोमस्तकसमवायित्वेन यदस्तीति प्रसिद्धं विषाणं, तच्छशादिमस्तकसमवायित्वेन नास्तीति निश्ची. यते । मेषादिसमवायित्वेन यानि रोमाणि सन्तीति प्रसिद्धानि तान्येव कूर्मादिसमवायित्वेन न सन्तीति निश्चीयन्ते। वनस्पतिसम्बन्धित्वेन यदस्तीति प्रसिद्धं कुसुमं-तदेव गगनसम्बन्धित्वेन नास्तीति निश्चीयते । तथा चास्तित्वं नास्तित्वं च परस्परमविनाभूतमेव वर्तते। ___ अब कदाचित् ऐसी शंका करो कि शैशशृंग आदिमें नास्तित्व अस्तित्वके बिना ही देख पड़ता है क्योंकि शशके श्रृंग तथा आकाशके पुष्प आदिका सर्वथा अभाव ही है इसका कारण उनकी असत्ता मात्र भान होनेसे अस्तित्वके बिना ही उनमें केवल नास्तित्व है तो नास्तित्व अस्तित्वसे व्याप्त है यह जो पूर्व प्रसंगमें अनुमान किया है वह असंगत हुआ ? । यदि ऐसी शंका करी तो उत्तरमें यह कहते हैं,-गौ और हरिण आदिके मस्तकपर जो समवाय संबन्धसे सींग प्रसिद्ध है वह सींग शश तथा अश्व आदिके मस्तकपर नहीं है ऐसा निश्चय किया जाता है । ऐसे ही मेष बकरी आदिके शरीरमें जो रोम प्रसिद्ध है वही कछुवेके शरीरमें नहीं है । इसी प्रकार वनस्पति या गुलाब आदिमें १ केवल साध्यके अधिकरणमें रहनेवाला अन्यत्र जिसका व्यतिरेक हो अर्थात् अभाव है । केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी, तथा अन्वयव्यतिरेकी, ये तीन प्रकारके हेतु न्यायशास्त्रमें माने हैं इनमेंसे केवलान्वयी यह हेतु है जिसकी सब जगह अन्वयसत्ता है, जैसे प्रमेयत्व अभिधेयत्व इत्यादि । केवल व्यतिरेकी वह है जिसकी सत्ता केवल साधर्म्यके अधिकरणमें हो अन्य सब जगह जिसका व्यतिरेक (अभाव) हो । अन्वयव्यतिरेकी वह है जिसकी पक्ष तथा सपक्षमें सत्ता हो अन्यत्र अभाव हो जैसे धूमवत्त्व. २ साधर्म्यके विना जो रहे. ३ सत्ता. ४ जैसे पृथिवीको पक्ष होनेसे जल आदिके भेदका अधिकरण है ऐसे ही घट भी पृथिवी होनेसे जलादिके भेदका अधिकरण है इसलिये वह भी पक्ष है. ५ शश (खरगोश )का सींग आकाशका पुष्प इत्यादिका अभाव ही है इसलिये केवल नास्तित्व है अस्तित्व नहीं है. For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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