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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस अवच्छेदक धर्मका वैशिष्टय है और उस अवच्छिन्नत्वका अन्वय धातुके अर्थ सत्तामें होता है, अस, धातुका अर्थ जो अस्तित्व है उसका भी सत्ता रूप अर्थसे तात्पर्य है, 'अस्ति' में जो आख्योत 'ति' है उसका आश्रय अर्थ है । तो अब इस प्रकारसे-घटत्व धर्मसे अवच्छिन्न जो अस्तित्व अर्थात् सत्ता उस सत्ताका आश्रय घट, यह प्रथम वाक्यका वाक्याथे “घटः घटत्वेन अस्ति" इन तीनों पदोंको मिलाके हुआ और सब अभाव जैन मतमें अधिकरणरूप मानेगये हैं इस प्रकारसे घट अभावका अधिकरण होनेसे पटत्व धर्मसे अवच्छिन्न जो अभाव अर्थात् पटका अभाव घटरूप है, क्योंकि यहां पटाऽभावका आधार घट माना है । उसी अपने अधिकरण भूत घटरूप वह होगा, और 'न अस्ति' यहांपर नञ् अर्थात् निषेधरूप अर्थवाचक 'न' इस अव्यय पदकी समीपतासे अस् धातुका अभाव अर्थ है, अर्थात् 'न अस्' इन दोनोंको मिलाके अभावरूप अर्थ हुआ, और आख्यात 'ति' विभक्तिका आश्रय अर्थ है यह पूर्वमें कह आये हैं, तो इसी रीतिसे पटत्व धर्मसे अवच्छिन्न जो पट उस पटत्वावच्छिन्न अभावका आश्रय घट इस प्रकारका, “घटः पटत्वेन नास्ति' इस द्वितीय वाक्यका अर्थ करनेपर पटत्वावच्छिन्न अभावरूपता ही घटकी सिद्ध होती है क्योंकि अभाव जब अपने आधार स्वरूप है । तब पटत्वरूप धर्मसे अवच्छिन्न पटके अभावका आधार घट है 'इसलिये पटत्व धर्मसे अवच्छिन्न अभाव स्वरूप घट है यह स्पष्ट रीतिसे अर्थ होगया और' “घटः मृद्रव्येण अस्ति" (घट अपने मृत्तिकारूप द्रव्यसे है ) इस तृतीय वाक्यमें भी मृद्रव्य इस पदके आगे जो तृतीया विभक्ति है उसका भी अवच्छिन्नत्व अर्थ है और अस् तथा तिका अर्थ पूर्ववत् सत्ता तथा आश्रय है अवच्छिन्नत्वका अन्वय आश्रयरूप तिके अर्थमें पूर्ववत् है मिलाके मृद्रव्यत्वसे अवच्छिन्न जो अस्तिता उसका आश्रय घट यह वाक्यार्थ हुआ इसी प्रकारसे आगेके चतुर्थ आदि वाक्योंका अर्थ भी समझलेना । । ननु-सर्वपदार्थानामपि स्वरूपादिचतुष्टयपररूपादिचतुष्टयाभ्यां व्यवस्थायामंगीक्रियमाणायां स्वरूपादीनां स्वरूपाद्यन्तरस्याभावात्कथं व्यवस्था स्यात् ? तेषामपि स्वरूपाद्यन्तरसद्भावेऽनवस्था प्रसंगात्, सुदूरमपि गत्वा स्वरूपाद्यन्तराभावेपि कस्यचिद्व्यवस्थायां किं स्वररूपाद्यपेक्षया सत्त्वासत्त्वसमर्थनरूपया स्वगृहमान्यया प्रक्रियया ? यथाप्रतीति वस्तुव्यवस्थोपपत्तेः॥इतिचेत्-अनभिज्ञो भवान् वस्तुस्वरूपपरीक्षायाः । वस्तुस्वरूप प्रतीतिरेव स्वपररू १ सम्बन्ध. २ धातुओंके आगे लगनेवाली विभक्ति ति तस् अन्ति आदि भी विभक्ति धातुओंके आगे जोड़ी जाती हैं उनको आख्यात कहते हैं. ३ अपने आधाररूपता, अभावको आधाररूपता जैन मत तथा अन्य कई मतमें भी माना है उसकी उपपत्ति इस प्रकार है जैसे 'भूतले घटाभावः' भूतलमें घटका अभाव है यहांपर घटके अभावका अधिकरण भूतल है तो उस अभावका स्वरूप भूतल ही है क्योंकि भूतलके स्वरूपके सिवाय और कुछ वस्तु उपलब्ध नहीं होती, जिस वस्तुमें जिसका अभाव कहोगे वही वस्तु उस अभावका अधिकरण होगी, और उस अभावका स्वरूप वही अधिकरण होगा जैसे घटके स्वरूपके प्रदर्शनमें पट आदिका अभाव कहा जाता है तो अधिकरण होनेसे घट ही पट आदिके अभ ४ नका अर्थ नहीं असका अर्थ होना दो मिलकर नहीं होना । और नहीं होना अभावरूप ही है. For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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