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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० नता है । तृतीय " स्यादस्ति नास्ति च घटः ' भङ्गमें क्रमसे योजित सत्त्व असत्त्वकी प्रधानता से प्रतीति है । क्योंकि किसी अपेक्षा घटका अस्तित्व और किसी अपेक्षासे नास्तित्वका भी अनुभव होता है । तथा चतुर्थमें अवक्तव्यत्वकी, पञ्चमें सत्तासहित अवक्तव्यत्वकी, षष्ठमें असत्तासहित अवक्तव्यत्वकी, और सप्तमभङ्गमें क्रमसे योजित सत्ता तथा असत्तासहित अवक्तव्यत्वकी प्रधानता से प्रतीति होती है, इस प्रकार सप्तभङ्गों का विवेक जानना चाहिये । प्रथम भङ्गसे 'स्यादस्त्येव घटः' आदिसे लेके कई भङ्गों में जो असत्त्व आदिका भान होता है उनकी गौणता है न कि निषेध. क्योंकि जब कथंचित् घटकी सत्ता है ऐसा कहा गया तब कथंचित् असत्ताका भी भान होता है । परन्तु असत्ताकी गौणता और सताकी प्रधानता है ऐसे ही आगेके भङ्गों में भी जिस धर्मको कहें, उसकी प्रधानता और उससे विरुद्धकी गौणता समझनी योग्य है ॥ ननु - अवक्तव्यत्वं यदि धर्मान्तरं तर्हि वक्तव्यत्वमपि धर्मान्तरं प्राप्नोति, कथं सप्तविध एव धर्मः ? तथाचाष्टस्य वक्तव्यत्वधर्मस्य सद्भावेन तेन सहाष्टभङ्गी स्यात्, न सप्तभङ्गीइति चेन्न । शंकाः- जैसे अवक्तव्यत्वके साथ योजित अस्तित्व नास्तित्व धर्मोको कथन करनेमें सर्वथा अशक्यत्वरूपता है ऐसेही वक्तव्यत्वभी धर्मांतर हो सकता है तो इस रीति से अटम वक्तव्यत्वरूप धर्मके होनेसे अष्टभंगी नय कहना उचित है नकि सप्तभंगी ? ऐसी शंका नहीं हो सकती ॥ सामान्येन वक्तव्यत्वस्यातिरिक्तस्याभावात् । सत्त्वादिरूपेण वक्तव्यत्वं तु प्रथमभङ्गादावेवान्तर्भूतम् । अस्तु वा वक्तव्यत्वं नाम कश्चन धर्मोऽतिरिक्तः, तथापि वक्तव्यत्वावक्तव्यत्वाभ्यां विधिप्रतिषेधकल्पनाविषयाभ्यां सत्त्वासत्त्वाभ्यामिव सप्तभङ्ग्यन्तरमेव प्राप्नोतीति न सत्वासत्त्वप्रमुखसप्तविधधर्मव्याघातः । तथा च धर्माणां सप्तविधत्वात्तद्विषयसंशयादीनामपि सप्तविधत्वमिति सप्तभङ्ग्या अधिकसंख्याव्यवच्छेदस्सिद्धः । क्योंकि सामान्यरूपसे वक्तव्यत्व भिन्न धर्म नहीं है और सत्त्व आदिरूपसे वक्तव्यत्व प्रथम भङ्गादिमें अन्तर्गतही है और वक्तव्यत्वभी कोई पृथक् धर्म मानो तोभी सत्त्व असत्त्वके समान विधि प्रतिषेध कल्पनाको विषय करनेवाले वक्तव्यत्व तथा अवक्तव्यत्व धर्मोसे अन्य सप्तभङ्गी ही सिद्ध होगी । इस रीतीसे सत्त्व असत्त्व आदि सप्त प्रकारके धर्मका व्याघात नहीं हुआ । इससे यह सिद्धान्त हुआ की धर्मों के सात भेद होने से उनके विषयभूत संशय जिज्ञासा तथा प्रश्नादिकभी सेप्तभेदसहित हैं इस कारण से सप्तभङ्गीकी अधिक संख्याका निराकरण हुआ || नन्वेवं रीत्याऽधिकसंख्याव्यवच्छेदेऽपि न्यूनसंख्याव्यवच्छेदः कथं सिद्ध्यति ? तथाहि १ कथंचित् नहीं है. २ सत्ता. ३ असत्ता. ४ अनुभव. ५ कथंचित् घट है. ६ असत्ता. ७ अप्रधानता नकि निषेध. ८ स्यादस्त्येव. ९ सात प्रकार के. For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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