SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकत्र वस्तुनीत्यत्र सप्तम्यर्थो विशेष्यत्वम् । तस्य कल्पनापदार्थबोधजनकत्वैकदेशे बोधेऽन्वयः सप्तभङ्गीत्यस्य सप्तवाक्यपर्याप्तसमुदायत्वाश्रयोऽर्थः । तथाचास्मदुक्तलक्षणमेव पर्यवसन्नम् । इस वाक्यमें 'प्रश्नवशात्' यह जो पञ्चम्यन्त पद है इस पदमें पञ्चमी विभक्तिका प्रयोज्यता अर्थ है 'विधि प्रतिषेध कल्पना' इस पदका विधिप्रतिषेध प्रकारक बोधजनिका अर्थ है 'अविरोधेन' यहां तृतीया विभक्तिका वैशिष्टय अर्थ है और उसका अन्वय विधिप्रतिषेधके साथ होता है। 'एकत्र वस्तुनि' इस पदमें सप्तमीका अर्थ विशेषता है और उसका अन्वय बोधजनकतारूप जो कल्पना पदार्थ उसके एक देशभूत बोधके साथ होता है । और सप्तभङ्गी इस पदका अर्थ सप्तवाक्यपर्याप्तसमुदायताश्रय है । इस रीतिसे हमने प्रथम जो सप्तभङ्गी लक्षण कहा है वही सिद्ध हुआ अर्थात् प्रानिक प्रश्नज्ञानका प्रयोज्य होकर एक वस्तु विशेष्यक अविरुद्ध विधिप्रतिषेधरूप नानाधर्मप्रकारक बोधजनक सप्तवाक्यपर्याप्तसमुदायतारूप जो है वही सप्तभङ्गी नय है ॥ अत्र च प्रत्यक्षादिविरुद्धविधिप्रतिषेधवाक्येष्वतिव्याप्तिवारणायाविरुद्धेति । घटोऽस्ति पटो नास्तीत्यादिसमुदायवारणाय एकवस्तुविशेष्यकेति । स्यादस्ति घटः, स्यान्नाति घटः, इति वाक्यद्वयमात्रेऽतिव्याप्तिवारणाय सप्तेति घटमानयेत्युदासीनवाक्यघटितनिरुक्तवाक्यसप्तकेति अव्याप्तिवारणाय सप्तवाक्यपर्याप्तेति । इस लक्षणके जो विशेष्य दलमें अविरुद्ध विधिप्रतिषेधात्मक धर्मप्रकारक इस पदमें अविरुद्ध पद है वह प्रत्यक्षादि प्रमाणमें विरुद्ध जो विधिप्रतिषेधरूप वाक्य हैं उनमें अतिव्याप्ति दोष वारणकेलिये है । क्योंकि लक्षण ऐसा होना चाहिये जिसमें अतिव्याप्ति अव्याप्ति तथा असंभव दोष न हों । और 'घटोस्ति पटो नास्ति' इत्यादि समुदायमें लक्षण न जाय इसलिये 'एकवस्तुविशेष्यक' यह पद दिया है । 'स्यादस्ति घटः स्यान्नास्ति घट:' इन दो वाक्योंमें अतिव्याप्ति वारण करनेके अर्थ सप्त यह पद दिया है ॥ तथा 'फँटमानय' इस उदासीन वाक्यघटित घटको लेकर पूर्वोक्त वाक्य सप्तकमें अव्याप्ति दोष निराकरण करनेके अर्थ 'सप्तवाक्य पर्याप्त समुदायता' यह विशेषण दिया है अर्थात् इन सप्त पूर्वोक्त वाक्योंमें ही यह लक्षण घटित होता है अन्यत्र नहीं ॥ यद्यपि सत्यन्तनिवेशस्यातिव्याप्त्यव्याप्त्यादि दोषवारकत्वं न सम्भवति, तथापि प्रतिपाद्यप्रश्नानां सप्तविधानामेव सद्भावात्सप्तैव भङ्गा इति नियमसूचनाय तन्निवेशनम् । ननु-प्रश्नानां सप्तविधत्वं कथमितिचेत् ; जिज्ञासानां सप्तविधत्वात् । प्राश्निकनिष्ठजिज्ञासाप्रतिपादकवाक्यं हि प्रश्न इत्युच्यते । यद्यपि लक्षणमें जो सत्यन्त विशेषण दल है अर्थात् 'प्रोश्निक प्रश्नज्ञान प्रयोज्यत्वे सति' इतना अंश अतिव्याप्ति तथा अव्याप्ति दोषोंके निवारण करनेमें सम्भव .१ घट है पट नहीं है. २ एकवस्तु विशेष्य करके. ३ कथंचित् घट है कथंचित् नहीं है. ४ घट लाओ. ५ प्रश्नकर्ताके प्रश्न ज्ञानका प्रयोज्य रहते. For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy