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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १७ ) महावरे, भारतीय कला के विकाश, उत्तर भारत के राजनैतिक व सामाजिक इतिहास और जैन धर्म के अनुयायियों के इतिहास, संगठन व पूजन अर्चन की विधि पर प्रकाश डालते हैं । इस प्रकार मथुरा से मिले हुए जैन स्मारक न केवल जैन इतिहास के लिये किन्तु भारत देश, विशेषतः उत्तर भारत के इतिहास के लिये बहुत उपयोगी हैं" । ( ४ ) सन् १६१२ में श्रीमान् पं० गौरीशंकर जी ओझा ने अजमेर के पास बड़ली ग्राम से एक बहुत प्राचीन जैन लेख का पता लगाया है । लेख है 'वीराय भगवते चतुरासिति वसे का ये जाला मालिनिये रंनिविठ माझिमिके' । लेख से ही प्रमाणित है कि वह वीर निर्वाण सं० ८४ ( ई० ४४३ वर्ष) में अंकित किया गया था । 'माझिमिक' वही प्रसिद्ध पुरानी नगरी ' मध्यमिका' है जिसका उल्लेख पातञ्जलि ने भी अपने 'महाभाष्य' में किया है । यह भारतवर्ष में लेखन कला के प्रचार का अभी तक सब से प्राचीन उदाहरण माना जाता है । यह लेख ईस्वी पूर्व पांचवीं शताब्दि में राजपूताने में जैन धर्म का अच्छा प्रचार होना सिद्ध करता है । (५) जैन ग्रन्थों में महाराज चन्द्रगुप्त मौर्य के जैन धर्मावलम्बी होने व भद्रबाहु स्वामी से जिन दीक्षा लेकर 'अरुणद् यवनः मध्यमिकाम्' । For Private And Personal Use Only
SR No.020653
Book TitleSanyukta Prant Ke Prachin Jain Smarak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad Bramhachari
PublisherJain Hostel Prayag
Publication Year1923
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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