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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सं० प्रा० प्राचीन जैन स्मारक । निषिध्य जानकर रानी ने अपने राजा को भोजन प्राप्त हो इस हेतु से राजा के छोटे भाई की स्त्री को छत पर भेज दिया । यह बहुत ही सुन्दर थी। कहते हैं इसके देखने के लिये सूर्य ठहर गया और जबतक यह ऊपर रही सूर्य प्रस्त न हुा । जब राजा का भोजन हो चुका तब वह नीचे उतरी। सूर्य छिप गया और घड़ी में नौ बजे । राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। कारण मालूम किया। तब उसके चित्त में छोटे भाई की वधू को देखने का भाव पैदा हो गया । कहते हैं इसका यह भाव ठीक न था । कुछ काल पीछे भयानक तूफान आया और सर्व नगर नष्ट हो गया । इसीलिये वर्तमान नाम सहेठ महेठ पड़ गया। नोट-मालूम होता है यह सुन्दर स्त्री धर्मात्मा मंत्रज्ञाता तथा पतिव्रता थी। उसके मंत्र प्रभाव से ही दिन बना रहा. व उसके शील के प्रताप से ही राजा को दंड मिला। ऊपर जिस संवत ११७६ के शिला लेख का वर्णन है इसे हमने स्वयं लखनऊ अजायबघर में देखा उसका सार यह है कि उसमें पहले ही ऊँ नमो वीतरागाय लिखा है । यह इस बात का चिह्न है कि उस समय जैनराज्य था क्योंकि यह खास शब्द जैनियों में ही प्रचलित है। मानधाता ने जावरिया नगर बसाया-उसको ककीता के सुपुर्द किया उससे वास्तव्य वंश हुआ। इस वंश में शिवभक्त विल्वशिव हुआ। उसका For Private And Personal Use Only
SR No.020653
Book TitleSanyukta Prant Ke Prachin Jain Smarak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad Bramhachari
PublisherJain Hostel Prayag
Publication Year1923
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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