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ययो: -- काव्य० १०, 2. धनिष्ट एकता- इच्छताँ सह वधूभिरभेदम् - कि० ९।१३, हि० ३।७९, आशास्महे विग्रयोरभेदम् - भर्तृ० १२४ ॥ अभेद्य ) ( वि० ) [ न० त०] 1. जो वेधा न जा सके 2. अभेदिक) अविभाज्य -- यन् हीरा । अभोज्य ( वि० ) [ न० त०] 1. खाने के अयोग्य, भोजन के लिए निषिद्ध, अपवित्र - 'अन्न (वि०) जिसका भोजन दूसरों के लिये खाने के अनुपयुक्त हो । अभ्यग्र ( वि० ) ( ब० स० । 1. निकट, समीप 2. ताजा, नया इदं शोणितमभ्यत्रे संप्रहारेऽच्युतत् तयो:महा०, सन सामीप्य, सान्निध्य ।
अभ्यङ्क (वि० ) [ प्रा० रा० ] हाल ही का चिह्नित । अभ्यङ्गः [अभि + अ + 1. किसी तेल या चिकने पदार्थ को शरीर पर मलना, तेल की मालिश-अभ्यङ्गनेपथ्यमलञ्चकार - कु० ७1७, 2. मालिश, लेप, 3. उबटन ।
अन्यञ्जनम् [अभि + अ + ल्युट् ] 1. चिकने पदार्थों को शरीर पर मलना, 2. मालिश करना 3. आंखों में काजल डालना 4. चिकना पदार्थ, तेल, उबटन | अभ्यधिक ( वि० ) [प्रा० स०] 1. अपेक्षाकृत अधिक 2. बढ़ चढ़ कर, गुण या परिमाण में अपेक्षाकृत अधिक, अधिक ऊँचा, अधिक बड़ा- नत्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्य:- भग० १११४३, (कई बार अपा० और करण० के साथ ) -धान्यं दशभ्यः कुम्भेम्यो हरतोऽभ्यधिक पध: - मनु० ८०३२०, 3. सामान्य से अधिक, असाधारण, प्रमुख भव पंचाभ्यविकः श० ६।२ । अभ्यनुज्ञा - ज्ञानम् (अभि + अनू+ज्ञा + अ + टाप्, ल्युट्
वा] 1. स्वीकृति, 2. सहमति, अनुमति कृताभ्यनुज्ञा गुरुणा गरीयसा कु० ५७, रघु० २।६९ 2. आज्ञा, आदेश 3. छुट्टी स्वीकार करना, बर्खास्त करना 4. तर्क को स्वीकार करना ।
अभ्यन्तर ( वि० ) [ प्रा० स०] 1. भीतरी भाग, आन्तरिक,
अन्दरूनी ( विप० बाह्य) रघु० १७१४५, का० ६६, याज्ञ० ३।२९३, 2. अन्तर्गत होना, किसी समूह या शरीर का एक अंग - देवी परिजनाभ्यन्तरः मालवि० ५, 3. दीक्षित, परिचित, कुशल (अधि० के साथ या समास में ) - सङ्गीतकेऽभ्यन्तरे स्वः- मालवि० ५, अहो प्रयोगाभ्यन्तरः प्रानिकः --- मालषि० २, 4. निकटतम, घनिष्ट, अत्यन्त संबद्ध -- त्यक्ताश्चाभ्यन्तरा येन पंच० १२५९ - रम् 1. भीतर का, भीतरी, अन्दर का, ( किसी वस्तु का ) अन्दरूनी भाग, भीतरी स्थान शममिवाभ्यन्तरलीन पावकाम् रघु० ३1९, भग० ५।२७, 2. सम्मिलित किया हुआ स्थल, समय या स्थान का अवकाश - षण्मासाभ्यन्तरे पंच० ४, 3. मन । सम० - करण ( वि० ) अन्दर ही अन्दर गुप्त
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अंगों वाला, प्रत्यक्षज्ञान की शक्ति को अन्दर रखने वाला, विक्रम० ४, कला गुप्त कला, प्रेम लीला या हावभाव प्रदर्शित करने को कला । अभ्यन्तरः [ अभ्यन्तर + कन् ] घनिष्ट मित्र । अभ्यन्तरीक [ अभ्यन्तर+च्चि + कृ ) ( तना० उभ० ) 1. दीक्षित करना, परिचित करना--- प्रागल्भ्याद्वक्तुमिच्छन्ति मन्त्रेष्वभ्यन्तरीकृता :- रामा० 2. परिचय कराना सर्वविभेषु अभ्यन्तरीकरणीया - का० १०१, दश० १५९, १६२, 3. किसी को निकटमित्र बनानावाह्याश्वाभ्यन्तरीकृताः - पंच० ९१२५९ । अभ्यन्तरीकरणम् | अभ्यंतर + चित्र + कृ + ल्युट् ] दीक्षित करता, परिचय कराना-सजोवनिर्जीवानु च द्यूतकलास्वम्प तरीकरणम् - ० ३९ ।
अभ्यमानम् [ अभि + अम् + ल्युट् ] 1. प्रहार, क्षति २. रोग ।
अभ्यमित अभ्यान्त (भू० क० कु० ) [ अभि + अम् + क्त ] 1. रोगी, बीमार 2. चोट खाया हुआ, घायल | अभ्यमित्रम् [ अव्य० स० ] शत्रु के ऊपर आक्रमण ( क्रि०
वि०) शत्रु को ओर या शत्रु के विरुद्ध चढ़ाई करना ! अभ्यमित्रीणः -प: । [ अभि + अमिश्र + ख, छ, यत् वा ] - वह योद्धा जो वीरतापूर्वक शत्रु का अभ्यनिभ्यः का सामना करता है— उद्योगमभ्यमिश्रणो यथेष्टं त्वं च संतनु - भट्टि० ५४७, मारीचोऽनुनयस्त्रासादभ्यमित्रयो भवामि ते ४६ । अभ्यः [ अभि + इ + अच् ] 1. आना, पहुचना 2. (सूर्य का) अस्त होना ।
अभ्यर्चनम्राभ्यर्चा [ अभि + अ + ल्युट् अ +टाप्
या ] पूजा, सजावट, समादर । अम्य ( वि० ) [ अभि + अर्द + क्त] निकट, समीप, स्थान
के निकट या समीप होने वाला:समीप आने वाला - अभ्यर्ण भागरकृतमस्पृशद्भिः - रघु०२१३२ - र्णम् सामीप्य, सान्निध्य - अन्धकारिणि वनाभ्यर्ण किमुद्भ्राम्यति गीत० ७, अभ्यर्णे परिरभ्य निर्भरभरः प्रेमांन्या राधया - गीत० १, शि० ३।२१ । अभ्यर्थनम्-ना [ अभि +अर्थ+ ल्युट् स्त्रियां टापू ] प्रार्थना, अनुरोध, दरख्वास्त, नालिश "नाभङ्गभयेन – कु०
१।५२ ।
अर्ध्याथन ( वि० ) [ अभि - अर्थ + णिनि । याचना या प्रार्थना करने वाला |
अभ्यर्हणा [ अभि + अ + युच्, स्त्रियां टाप् ] 1. पूजा, 2.
आदर, सम्मान, समादर ।
अभ्यहित (नि० ) [ अभि + अर्ह + क्त ] 1. सम्मानित, प्रतिष्ठित, अत्यादरणीय 2. योग्य, सुहावना, उपयुक्त, ---अभ्यहिता बन्धुषु तुल्यरूपा वृत्तिर्विशेषेण तपोवनानाम - कि० ३।११ ।
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