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जा सकता। सारांश यह हुआ कि जब मनुष्य के पास [ 10. कूपयंत्रघटिका न्यायः [ रहटटिंडर न्याय ] इसका किसी कार्य को सम्पन्न करने के अनेक साधन प्राप्त उपयोग सांसारिक अस्तित्व की विभिन्न अवस्थाओं हों, तो यह उसकी अपनी इच्छा है कि वह चाहे को प्रकट करने के लिए किया जाता है-जैसे रहट किसी साधन को अपना ले। ऐसी अवस्था में किसी के चलते समय कुछ टिंडर तो पानी से भरे हुए ऊपर भी साधन को अपनाने का कोई विशेष कारण नहीं को जाते हैं, कुछ खाली हो रहे हैं, और कुछ बिल्कुल दिया जा सकता।
खाली होकर नीचे को जा रहे है-कांश्चित्तच्छयति 5 .अश्मलोष्टन्यायः [पत्थर और मिट्टी के लौंदे का न्याय] प्रपूरयति वा कांश्चिन्नयत्यन्नति कांश्चित्पातविधी
मिट्टी का ढला रूई की अपेक्षा कठोर है परन्तु वही करोति च पुनः कांश्चिन्नयत्याकुलान्, अन्योन्यप्रतिकठोरता मदुता में बदल जाती है जब हम 'उसकी पक्षसंहतिमिमां लोकस्थिति बोधयन्नेष क्रीडति कपतुलना पत्थर से करते है। इसी प्रकार एक व्यक्ति यंत्रटिकान्यायप्रसक्तो विधिः । मृच्छ० १०५९ । बड़ा महत्त्वपूर्ण समझा जाता है जब उसकी तुलना 11. घटकूटीप्रभातन्यायः [ चुंगी घर के निकट पौफटी उसकी अपेक्षा निचले दर्जे के व्यक्तियों से की जाती
का न्याय ] कहते हैं एक गाड़ीवान चुंगी देना नहीं है, परन्तु यदि उसकी अपेक्षा श्रेष्ठतर व्यक्तियों से
चाहता था, अतः वह ऊबड़-खाबड़ रास्ते से रात को तुलना की जाय तो वही महत्त्वपूर्ण व्यक्ति नगण्य वन
ही चल दिया, परन्तु दुर्भाग्यवश रात भर इधर-उधर जाता है । 'पाषाणेष्टकन्याय' भी इसी प्रकार प्रयुक्त घूमता रहा, जब पौफटी तो देखता क्या है कि वह किया जाता है।
ठीक चुंगीघर के पास ही खड़ा है, विवश हो उसे . 6. कदंबकोरक (गोलकन्यायः [ कदंब वृक्ष का कलि चुंगी देनी पड़ी इसलिए जब कोई किसी कार्य को
का माय] कदंब वृक्ष की कलियाँ साथ ही खिल जानबूझ कर टालना चाहता है, परन्तु में उसी को जाती है, अतः जहाँ उदय के साथ ही कार्य भी होने करने के लिए विवश होना पड़ता है तो उस समय लगे, वहाँ इस न्याय का उपयोग करते हैं।
इस न्याय का प्रयोग होता है. -दे० श्रीधर-तदिदं 7. काक तालीय न्यायः कौवे और ताड़ के फल का न्याय] घट्टकुटीप्रभातन्याय मनुवदति।
एक कौवा एक वृक्ष की शाखा पर जाकर बैठा ही 12. धुणाक्षर न्यायः [लकड़ी में धुणकोटों द्वारा निर्मित था कि अचानक ऊपर से एक फल गिरा और कौवे अक्षर का न्याय किसी लकड़ी में घुन लग जाने से के प्राण पखेरु उड़ गये ----अत: जब कभी कोई घटना अथवा किसी पुस्तक में दीमक लग जाने से कुछ शुभ हो या अशुभ अप्रत्याशित रूप से अकस्मात् अक्षरों की आकृति से मिलते-जुलते चिह्न अपने आप बन घटती है, तब इसका उपयोग होता है-तु० चन्द्रा०- जाते हैं, अत: जब कोई कार्य अनायास व अकस्मात हो यत्तया मेलनं तत्र लाभो मे यश्च सुभ्रवः, तदेतत्काक- जाता है तब इस न्याय का प्रयोग किया जाता है। तालीयमविकितसंभव । कुवलयानन्द में भी--
दण्डापूपन्यायः [ डंडे और पूड़े का न्याय | जब डंडा पतत् तालफलं यथा काकेनोपभुक्तमेवं रहोदर्शने
और पूड़ा एक ही स्थान पर रक्ख गये-और एक क्षुभितहृदया तन्वी मया भुक्ता। दे० 'काकतालीय'
व्यक्ति ने कहा कि इंडे को तो चहे घसीट कर ले भी।
गये और खा लिया, तो दूसरा व्यक्ति स्वभावतः यह 8. काकदंतगवेषणन्यायः [ कौवे के दाँत ढूंढना ] यह
समझ लेता है कि पूड़ा तो खा ही लिया गया होगान्याय उस समय प्रयुक्त होता है जब कोई व्यक्ति
क्योंकि वह उसके पास ही रक्खा था। इसलिए व्यर्थ, अलाभकारी या असंभव कार्य करता है।
जब कोई वस्तु दूसरी के साथ विशेष रूप से अत्यंत १. काकाक्षिगोलन्यायः [कौवे की आंख गोलक का न्याय संबद्ध होती है और एक वस्तु के संबंध में हम कुछ
एकदृष्टि, एकाक्ष आदि शब्दों से यह कल्पना की कहते है तो वही बात दूसरी के साथ भी अपने आप जाती है कि कौवे की आँख तो एक ही होती है, लागू हो जाती है, तु०-मूषिकेण दंडो भक्षितः इत्यपरन्तु वह आवश्यकता के अनसार उसे एक गोलक से नेन तत्सहचरितमपूपभक्षणमर्थादायातं भवतीति नियतदूसरे गोलक में ले जा सकता है। इसका उपयोग समानन्यायादतिरमापततीत्येष न्यायो दंडापूपिकाउस समय होता है जब वाक्य में किसी शब्द या सा० द०१०। पदोच्चय का जो केवल एक ही बार प्रयुक्त हुआ है, 14. बेहलीदीपन्यायः [ देहली पर स्थापित दीपक का आवश्यकता होने पर दूसरे स्थान पर भी अध्याहार न्याय जब दीपक को देहली पर रख दिया जाता है कर लें-अर्थात् =द्वीपोऽस्त्रियातरीपः इत्यत्र अस्त्रि- तो इसका प्रकाश देहली के दोनों ओर होता है अतः यामित्यस्य काकाक्षिगोलकन्यायेन अंतरीपशब्देनाप्य- यह न्याय उस समय प्रयुक्त किया जाता है जब एक न्वयः ।
ही वस्तु दो स्थानों पर काम आवे ।
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