________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(
३७८
)
2. शुक्लपक्ष 3. चन्द्रकांतमणि,----द्रम् 1. चांद्रायण । ७।४२, हि० २।२९, मेव० ३५, चित्रन्यस्तमिवाचलं नामक व्रत 2. ताजा अदरक 3. मगशीर्ष नक्षत्र,द्री हयशिरस्यायामवच्चामरम-विक्रम० ११४, २०१८ । चांदनी। सम०-भागा चन्द्रभागा नाम नदी,-मासः सम - ग्राहः,-ग्राहिन पुं०) चंवर डुलाने वाला, चंबर चन्द्रमा की तिथियों के अनुसार गिना जाने वाला वरदार,---ग्राहिणी चंवर डलाने वाली राजा की महीना,---तिक: चांद्रायण व्रत रखने वाला।
सेविका-पठे लोलाबलयरणितं चामरग्राहिणीनां चन्द्रकम् [चान्द्र+के+क] सूखा अदरक, सोंठ ।। ....... भर्तृ० ३६१,-पुष्पः,--पुष्पक: 1. सुपारी का पेड़ चान्द्रमस (वि०) (स्त्री-सी) चन्द्रमस+अण] चन्द्रमा 2. केतकी का पौधा 3. आम का वृक्ष ।
से संबंध रखने वाला, चाँद-संबंधी-लब्धोदया चन्द्रमसीव चामरिन (पुं०) चिमर + इनि] धोड़ा। लेखा-क० ११२५, चन्द्रं गता पद्मगुणान्न भुंक्ते पद्मा- चामीकरम् चमीकर+अण्] 1. सोना-तप्तचामीकराङ्गदः श्रिता चन्द्रमसीमभिख्याम्-११४३, रघु० २।३९, भग० -विक्रम० १२१४, रघु० ७।५, शि० ४।२४, कु० ८।२५,-सम् मृगशिरा नक्षत्रपुंज।
७२४ 2. धतूरे का पौधा। सम०-प्रख्य (वि०) चण्द्रमसायनः,-निः [चन्द्रमसोऽपत्यम् - फिन] बुधग्रह । सोने की तरह का। चान्द्रायणम् [चन्द्रस्यायनमिवायनमत्र, पूर्वपदात् संज्ञायां
| चामुण्डा [चम्+ला-+क, पृषो० साधुः दुर्गा का रौद्ररूप णत्वं, संज्ञायां दीर्घः, स्वार्थे अण् वा-तारा०] एक -मा०५।२५ । धार्मिक व्रत या प्रायश्चित्तात्मक तपश्चर्या जो चन्द्रमा चाम्पिला [चम्प+अङ+टाप् =चम्पा+अण् + इलच् | की वृद्धि व क्षय से विनियमित है। इस व्रत में दैनिक । चंपा नाम की नदी (संभवतः वर्तमान 'चंबल' नदी)। आहार (जो १५ ग्रास या कौर का होता है) पूर्णिमा चाम्पेयः [चम्पा+ढक] 1. चम्पक वृक्ष 2. नागकेसर का पेड़, से प्रतिदिन एकर ग्रास घटता रहता है यहाँ तक कि -यम् 1. तन्तु, विशेषकर कमल फल का 2. सोना अमावस्या के दिन नितांत निराहार व्रत रक्खा जाता 3. धतूरे का पौधा (अंतिम दो अर्थों में पुं० भी)। है, उसके पश्चात् फिर शुक्लपक्ष में एक कौर से
स चाय (भ्वा० उभ० चायति ---ते) 1. निरीक्षण करना, आरंभ करके पूर्णिमा तक बढ़ाकर फिर १५ ग्रास तक
___अच्छा बुरा पहचानना, देख लेना-शि० १२५१ लाया जाता है) तु० याज्ञ० ३।३२४, मनु०११।२१७
2. पूजा करना । चान्द्रायणिक (वि०) (स्त्री०-को) [चान्द्रायण-+8]| चारः चिर-घन] 1. जाना, घमना, चाल, भ्रमण चान्द्रायण व्रत का पालन करने वाला।
—-मण्डलचारशीघ्रः--विक्रम० ५।२, क्रीडाशैले यदि च चापम् (चप-अण्) 1. धनुष,-ताते चापद्वितीये वहति
विचरेत् पादचारेण गौरी--मेघ०६०, पैदल चलना रणधुरां को भयस्यावकाशः--वेणी० ३१५, इसी प्रकार
2. गति, मार्ग, प्रगति --मंगलचार, शनिचार आदि 'चापपाणिः' 2. हाथ में धनुष लिये हुए 3. इन्द्र धनुष 3. भेदिया, चर, गुप्तचर, दूत-मनु० ७।१८४, 4. (ज्यामिति) वृत्त की तोरणाकार रेखा 5. धनुः
९१२६१, दे० चारचक्षुस नी० 4. अनुष्ठान करना, राशि।
अभ्यास करना 5. बंदी 6. बंधन, बेड़ी,-रम कृत्रिम चापलम्,- ल्यम् [चपल+अण, ष्यन वा] 1. द्रुतगति,
विष । सम-अन्तरितः भेदिया,- ईक्षणः-चक्षुस् (पु) स्फति 2. चंचलता, अस्थिरता, संक्रमणशीलता-कि०
'गुप्तचरों को आँख के स्थान में प्रयुक्त करने वाला २।४१ 3. विचारशन्य या आवेशपूर्ण आचरण,
राजा (या राजनीतिज्ञ) जो गुप्तचर या भेदिया उतावलापन, उद्दण्ड कृत्य ---धिक चापलम्-उत्तर ४,
रखता है और उन्हीं के माध्यम से देखता है, चारतद्गुणैः कर्णमागत्य चापलाय प्रचोदितः, रघु० १।९,
चक्षर्महीपति:--- मनु०९।२५६, तु० कामन्दकः गावः स्वचित्तवत्तिरिव चापलेभ्यो निवारणीया---का० १०१
पश्यन्ति गन्धेन, वेदैः पश्यन्ति च द्विजाः, चारः पश्यन्ति 4. (घोड़े आदि का) अड़ियलपन-पुनः पुनः सूतनिपिद्ध- राजानः चक्षुामितरे जनाः। रामा० भी-यस्मात्पचापलम् --- रघु० ३।४२।
श्यन्ति दूरस्थाः सर्वानर्थान्नराधिपाः, चारेण तस्मादुच्यन्ते चामरः,-रम् [चमर्याः विकारः तत्यूच्छनिमितत्वात राजानरचारचक्षुषः। चणः, --चञ्च (वि०) ललित
चमरी+अण] (कभो२.-रा,--री) चौरी, चंवर या चाल वाला, सजीला । ... पयः चौराहा,---भट: वीर चमरी की पूंछ, (यह मोरछल या पंखे की भांति योद्वा, वायुः ग्रीष्मकालीन मदु मन्द पवन, बसन्त प्रयुक्त की जाती है, और एक राजकीय चिह्न समझा वायु। जाता है कभी-कभी यह केतपट की भांति घोड़े के चारकः चिर+णिच+ण्वल | 1. भेदिया 2. ग्वाला 3. नेता सिर पर फहराया जाता है)-व्याधूयन्ते निचुलतरुभिः । चालक 4. साथी 5. अश्वारोही, सवार 6. कारागार मञ्जरीचामराणि--विक्रम०४।४, अदेयमासीत् अयमेव ---निगडितचरणा चारके निरोद्धव्या... दश०१२। भूपते: शशिप्रभं छत्रमुभे च चामरे-रघु० ३।१६, कु० । चारणः [चर-+णिच् + ल्यट] 1. भ्रमणशील, तीर्थयात्री
For Private and Personal Use Only