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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३४९ ) गरणम् [ गु ना ) [मरिष्ठ) पूर्जगतो गु (गु) फित (भू.क. कृ०) [गु (गुम) फ्+क्त ] | प्रधान, अधीक्षक, शासक-वर्णाश्रमाणां गरवे स वर्णी इकट्ठा गुंथा हुआ, बांधा हुआ, ब्रुना हुआ। -रघु० ५।१९, वर्ण और आश्रमों का प्रधान -- गुरुगुम्फः [ गुम्फ+घा] 1. बांधना, गूंथना,---गुम्फो नृपाणां गुरवे निवेद्य-- २०६८ 6. बृहस्पति, देवगुरु वाणीनाम्-बालरा० १११ 2. एक स्थान पर रखना, - गुरु नेत्रसहस्रेण चोदयामास वासवः-कू० २।२९ रचना, करना, क्रम पूर्वक रखना 3. कंकण 4. गल- 7. बृहस्पति नक्षत्र-गुरुकाव्यानगां बिभ्रच्चान्द्रीमभिमुच्छ, मूंछ। नभः श्रियम-शि० १२ 8. नये सिद्धान्त का गुम्फना [ गुम्फ+ युच-+ टाप् ] 1. एक जगह गूंथना, नत्थी व्याख्याता 9. पुष्य नक्षत्र 10. कौरव और पांडवों के करना 2. क्रम पूर्वक रखना, रचना करना 3. सुसा- गुरु 11. मीमांसकों के एक संप्रदाय का नेता प्रभाकर मंजस्य (शब्द और अर्थ का), अच्छी रचना-वाक्ये (उसके नाम पर 'प्राभाकर' या 'प्रभाकरीय' कहलाता शब्दार्थयोः सम्यग्रचना गुम्फना मता। है), -अर्थ:--शिष्य को शिक्षा देने के उपलक्ष्य में गुर (तुदा० आ०--गुरते, गूर्त, गूर्ण) प्रयत्न करना, चेष्टा गरुदक्षिणा---गर्वर्थमाहर्तमहं यतिष्ये --रघु० ५।७, करना, i (दिवा० आ० –भू० के० कृ०- गूर्ण) ---- उत्तम (वि.) अत्यंत सम्माननीय (-मः) पर1. चोट पहुंचाना, मार डालना, क्षति पहुंचाना मात्मा,--कारः पूजा, उपासना,-- क्रमः उपदेश, पर2. जाना। म्पराप्राप्त शिक्षा,-जनः श्रद्धेय पुरुष, वृद्धसंबंधी गुरणम् । गुर+ल्युट ] प्रयत्न, धैर्य । बुजुर्ग-- नापेक्षितो गुरुजनः – का० १५८, भामि० गुरु (वि० ---रु, वी) [ग+कु, उत्वम् ] (म० अ० २१७, -तल्प: 1. अध्यापक की शय्या (भार्या) 2. अध्या---गरीयस, उ० अ० गरिष्ठ) 1. भारी, बोझल पक को शय्या का उल्लंघन अर्थात् गुरुपत्नी के साथ (विप० लघु०) (आल० से भी)-वेन धूर्जगतो गुर्वी अनुचित संबंध,- तल्पग, -- तल्पिन् गुरु-पत्नी के अनुसचिवेषं विचिक्षिपे---रघु० ११३४, ३॥३५, १२।१०२, चित संबंध रखने वाला (हिन्दुधर्म शास्त्र के अनुसार ऋतु०१७ 2. प्रशस्त, बड़ा, लम्बा, विस्तृत 3. लंबा ऐसा व्यक्ति महापातकियों में गिना जाता है....अति(काल मात्रा या लंबाई में) आरम्भगुर्वी --भर्तृ० पातकी, तु०, मनु० ११११०३) 2. जो अपनी सौतेली रा६०, गुरुषु दिवसेष्वेव गच्छत्सु-मेघ० ८३ 4. महत्त्व माता के साथ व्यभिचार करता है, बक्षिणा आध्यापूर्ण, आवश्यक, बड़ा-विभवगुरुभिः कृत्यैः-श० ४।१८, त्मिक गुरु को दी जाने वाली दक्षिणा- रघु० ५।१, स्वार्थात्सता गुरुतरा प्रणयिक्रियैव-विक्रम० ४.१५ -देवत: पुष्य नक्षत्र, -पाक (वि०) पचने में कठिन, 5. दुःसाध्य, असह्य -कान्ताविरहगुरुणा शापेन-मेघ० ---भम् 1. पुष्यनक्षत्र 2. धनुष,- मर्दल: एक प्रकार १ 6. बड़ा, अत्यधिक, प्रचंड, तीव्र --गुरुः प्रहर्षः की ढोलक या मृदंग,-- रत्नम् पुखराज, - लाघवम् प्रबभूव नात्मनि-रघु० ३११७, गुर्वपि विरहदुःखम् सापेक्षिक महत्त्व या मूल्य,-वतिन, -वासिन् (पुं०) गरु के घर रह कर पढ़ने वाला ब्रह्मचारी,-वासरः --श० ४।१५, भग०६।२२ 7. श्रद्धेय, आदरणीय 8. भारी, दुष्पाच्य 9. अभीष्ट, प्रिय 10. अहंकारी, बृहस्पति बार, - - वृत्तिः (स्त्री०) ब्रह्मचारी का अपने घमंडी, दर्पोक्ति 11. (छन्दःशास्त्रमें) दीर्घमात्रा, (या तो गुरु के प्रति आचरण। स्वयं दीर्घ, अथवा संयुक्त व्यंजन से पूर्व होने के कारण गुरुक (वि.) (स्त्री० --की) [गुरु+कन] 1. जरा भारी दीर्घ) उदा. 'ईड' में ई, तथा 'तस्कर' में त, (यह 2. (छन्द० में) दीर्घ । छं० में प्रायः 'ग' लिखा जाता है —मात्ती गौ चेच्छा- | गु (गू) जरः (गुरु+ज+-णिच् +अण-पृषो०] 1. गुजरात लिनी वेदलोकै:-आदि),-हः पिता न केवलं तद्गु का प्रदेश या जिला--तेषां मार्ग परिचयवशाजितं हरेकपार्थिवः क्षितावभूदेकनपरोऽपि सः-रघु० ३।३१, गुर्जराणां यः संतापं शिथिलमकरोत् सोमनाथं विलोक्य ४८, ४११, ८२९ 2. कोई भी श्रद्धेय या आदरणीय --विक्रमांक. १८१९७ । पुरुष, वृद्ध पुरुष या संबंधी, बुजुर्ग (ब०२०) शुश्रू गुविणी, गुर्वी [गुरु-+ इनि+ङीप, गुरु+कोष] गर्भवती षस्व गुरून् -श० ४।१४, भग० २।५, भामि० २।७, स्त्री-उदा० गुर्विणीं नानुगच्छन्ति न स्पशन्ति रज१८, १९, ४९, आज्ञा गुरूणां ह्यविचारणीया-रघु० स्वलाम् । १४१४६ 3. अध्यापक, शिक्षक--गुरुशिष्यो 4. विशेष- गुलः [=गुड, डस्य ल:] गुड़ तु० गुड । तया धार्मिकगरू, आध्यात्मिक गुरु -- तो गुरुगुरुपत्नी गुलच्छः,-गुलञ्छ: [=गुच्छ पृषो० गुड्+क्विप, उस्य ल:, च प्रीत्या प्रतिननन्दतुः-रघु० ११५७, (पारिभाषिक गुल+उञ्छ् + अण्] गुच्छ, झुंड दे० गुच्छ । रूप से गुरु वह है जो गायत्री मंत्र का उपदेश करे | गुल्फः [गल+फक अकारस्य उकारः] टखना -आगुल्फऔर शिष्य को वेदाध्यापन करे--स गुरुर्यः क्रियाः कीर्णापणमार्गपुष्पं कु. ७५५, गुल्फावलंबिना कृत्वा वेदमस्मै प्रयच्छति-याज्ञ. ११३४) 5. स्वामी, -का० १० । For Private and Personal Use Only
SR No.020643
Book TitleSanskrit Hindi Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaman Shivram Apte
PublisherNag Prakashak
Publication Year1995
Total Pages1372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size37 MB
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