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सोंठ,-महः 1. इन्द्र के सम्मान में किया जाने वाला ज्ञानेन्द्रिय का संपर्क (चाहे वह बाह्य विषयों से हो उत्सव 2. बरसात,-लोकः इन्द्र का संसार, स्वर्गलोक, या मन से)--स्वापः अज्ञेयता, अचेतना, जडिमा । ---वंशा,-बना दो छंदों के नाम दे० परिशिष्ट, इन्ध (रु. आ.) (इंद्धे या इंधे, इद्ध) प्रज्वलित करना, --शत्रुः 1. इन्द्र का शत्रु या इन्द्र को मारने वाला जलाना, आग लगाना, (कर्मवा --इध्यते) जलाया (जब कि स्वराघात अन्तिम स्वर पर है), प्रह्लाद की जाना, प्रदीप्त होना, लपटें उठना, सम्---, प्रज्वलित उपाधि,-- रघु० ७।३५, 2. इन्द्र जिसका शत्रु है, करना। वृत्र का विशेषण (जब कि स्वराघात प्रथम स्वर पर इन्धः [ इन्ध+घा 1 इंधन, (लकड़ी कोयला आदि)। है) [यह घटना शतपथ ब्राह्मण के एक उपाख्यान की इन्धनम् [ इन्ध् + ल्युट्] 1. प्रज्वलित करना, जलाना 2. ओर संकेत करती है, यहाँ बतलाया गया है कि इंधन (लकड़ी आदि)। वृत्र के पिता न अपने पुत्र को इन्द्र के मारने वाला इभः [इ+भन्, किच्च ] हाथी,-भी हथिनी। सम० बनाने का विचार किया और उसे “इन्द्रशत्रर्वधस्व" - अरिः सिंह,—आननः गणेश तु० 'गजानन'--निमीबोलने को कहा, परन्तु भूल से उसने प्रथम स्वर पर लिका चतुराई, बुद्धिमत्ता, सतर्कता,—पालकः महावत, बलाघात किया और इन्द्र के द्वारा मारा गया--तु० -पोटा अल्पवयस्का हथिनी,-पोतः अल्पवयस्क हाथी, शिक्षा-५२-मंत्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्याप्रयुक्तो हाथी का बच्चा,-युवति: (स्त्री०) हथिनी। न तमर्थमाह, स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेंद्रशत्रु:
इम्य (वि०) [इभ गजमहंति - यत् ] धनाढ्य, धनवान् स्वरतोपराधात् ।]-शलभः एक प्रकार का कीड़ा,
-म्यः 1. राजा 2. महावत,–भ्या हथिनी। वीरबहूटी,-सुतः,--सूनुः (क) जयन्त का नाम (ख)
इम्यक (वि०) [ स्वार्थ कन् ] धनाढ्य, धनी। अर्जुन का नाम (ग) वानरराज वालि का नाम,
इयत् (वि०) [ इदम्+वतुप ] इतना अधिक, इतना बड़ा, --सेनानीः इन्द्र की सेनाओं का नेता, कातिकेय
इतने विस्तार का--इयत्तवायुः- दश० ९३, इयन्ति की उपाधि।
वर्षाणि तया सहोग्रम् रघु० १३६६७, इतने वर्ष-द्वयं इनकम् [इन्द्रस्य राज्ञः कं सुखं यत्र-तारा०] सभा-भवन, नीतिरितीयती-शि०२३०, इतनी । बड़ा कमरा।
इयसा, इयत्वम् [इयत्+तल+टाप्, त्वल वा] 1. इन्द्राणी [इन्द्रस्य पत्नी आनुक् +डीप्] इन्द्र की पत्नी, शची। (क) इतना, निश्चित माप या परिमाण-ईदृक्तया इग्रियम् [इन्द्र+घ-इय] 1. बल, शक्ति (वह गुण जो रूपमियत्तया वा--रघु० १३१५, न....."यशः परिइन्द्र में विद्यमान था) 2. शरीर के वह अवयव जिनके
च्छेत्तुमियत्तयालम्-६७७ (ख) सीमित संख्या, सीमा द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जाता है, ऐसे अवयव -न गुणानामियत्तया रषु०१०।३२, 2. सीमा, मानक । (इन्द्रियां) दो प्रकार के हैं (क) ज्ञानेन्द्रियाँ या । इरणम् [ऋ+अण् पृषो०] 1. मरुस्थल 2. रिहाली या बुद्धीन्द्रिया-श्रोत्रं त्वकचक्षुषी जिह्वा नासिका चैव लुनई भूमि, बंजर भूमि, तु० 'इरिण'। पंचमी (कुछ के अनुसार 'मन' भी) (ख) कर्मेन्द्रि- इरम्मदः [ इरया जलेन माद्यति वर्धते इति ---इरा-मद+ याँ-पायूपस्थं हस्तपादं बाक् चैव दशमी स्मृता खश्, ह्रस्वः मम्] 1. बिजली की कौंध, बिजली के मनु० २९९, 3. शारीरिक या पुरुषोचित शक्ति, गिरने से पैदा हुई आग, 2. बाडवानल । ज्ञानशक्ति 4. वीर्य 5. पांच की संख्या के लिए इरा[इ-रन, ई कामं राति---रा-+क वा तारा०] प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति । सम.-अगोचर (वि.) 1. पृथ्वी 2. वक्तृता 3. वाणी की देवता सरस्वती जो दिखलाई न दे सके,-अर्थः 1. इन्द्रियों के विषय 4. जल 5. आहार 6. मदिरा। सम०-ईशः वरुण, (वह विषय ये हैं:-रूपं शब्दो गंधरसस्पर्शाश्च विषया विष्णु, गणेश,-चरम् ओला, इसी प्रकार 'इरांबरम्'। अमी-अमर०), भग० ३१३४, रघु० १४२५,-आय- | इरावत् (पु.) [इरा-मतुप ] समुद्र ।। सनम् इन्द्रियों का आवास अर्थात् शरीर,-गोचर | इरिणम् [ ऋ-इनच्, किदिच्च ] लुनई भूमि, रिहाली (वि.) जो इन्द्रियों द्वारा देखा या जाना जा सके | जमीन। (-र:) शान का विषय,- प्रामः,—वर्गः इन्द्रियों का , इरुि - लु (वि.) [ उर्व+आरु, पृषो०] नाशक, हिंसक समूह, समष्टि रूप से ग्रहण की गई पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ -ह: (पुं० स्त्री०) ककड़ी। -बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति--मनु० इल (तु० पर०) (इलति, इलित) या (चु० उभ०) 1. जाना, २।२१५, निर्ववार मधुनीन्द्रियवर्ग:-शि० १०१३, चलना-फिरना 2. सोना 3. फेंकना, भेजना, डालना। --ज्ञानम् चेतना, प्रत्यक्ष करन की शक्ति,-निग्रहः । [इल-क-टाप् ] 1. पृथ्वी 2. गाय 3. वक्तृता ज्ञानेन्द्रियों का नियन्त्रण,--वधः अज्ञेयता,-विप्रति- -दे० 'इडा'। सम-गोल:--लम् पृथ्वी, धरती पतिः (स्त्री०) इन्द्रियों का उन्मार्गगमन, सन्निकर्षः। भूमंडल, धरः पहाड़।
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