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( १५८
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मार (रा) व: [ आ + रु+अप्, घञ् वा ] 1. आवाज़ | आरेक: [ आ + रिच् + घञ ] 1. रिक्त करना, 2. संकुचित 2. चिल्लाना, गुर्राना ।
करना ।
आरस्यम् [ अरस + ष्यञ ] नीरसता, स्वादहीनता । आरा दे० 'आर' के नीचे ।
आरात् ( अव्य० ) [ आ + रा बा० आति-तारा० 'आर' को पा० ए० ० ]1. निकट के पास ( अपा० के साथ या स्वतंत्र ) - तमर्च्य मारादभिवर्तमानं रघु० २। १०, ५1३ 2 से दूर, ( कर्म० के साथ इन दोनों अर्थों में) शि० ३।३१ दूर दूरस्थ 3. फासले पर दूरी से उत्तर० २।२४ ।
भारातिः [ आ +रा+क्तिच् ] शत्रु । आरातीय (वि० ) [ आरात् + छ] 1. निकट आसन्न 2. दूर का । | आरात्रिकम् [ अरात्रावपि निर्वृत्तम्- ठश ] 1. रात के
समय भगवान् की मूर्ति के सामने आरती उतारना -- सर्वेषु चाङ्गेषु च सप्तवारान् आरात्रिकं भक्तजनस्तु कुर्यात् 2. आरती उतारने का दीपक -- शिरसि निहितभारं पात्रमारात्रिकस्य भ्रमयति मयि भूयस्ते कृपार्द्रः |
कटाक्षः- शंकर |
आराधनम् [ आ + राघ् + ल्युट् ]1. प्रसन्नता, सन्तोष,
सेवा ( खातिर ) - येषामाराधनाय - उत्तर० १, यदि वा जानकीमपि आराधनाय लोकानां मुञ्चतो नास्ति मे व्यथा - १।१२ 2. सेवा, पूजन उपासना, अर्चना, ( देवता की ), आराधनायास्य सखीसमेताम् - कु० ११५८, भग० ७।२२३. प्रसन्न करने के उपाय - इदं तु ते भक्तिनम्रं सतामाराधनं वपुः - कु० ६।७३ 4.
सम्मान करना, आदर करना- उत्तर० ४।१७5. पकाना 6. पूर्ति, दायित्व निभाना, निष्पत्ति, ना सेवा, --नी (देवता की पूजा, उपासना, अर्चना । आराषयित (वि० ) [ आ + राघ् + णिच् + तृच् ] उपासक, विनम्र सेवक, पूजक
आरामः [आ+रम्+घञ ] 1. खुशी, प्रसन्नता - इन्द्रिया
रामः - भग० ३।१६, आत्मारामाः - वेणी ०१।३१, एकाराम-याज्ञ० ३।५८ 2. बाग, उद्यान - प्रियारामा हि वैदेह्यासीत् उत्तर० २ आरामाधिपतिविवेक विकल: -भामि० ११३१.
आरामिक: [ आराम + ठक्] माली । आरालिक: [अराल + ठक् ] रसोइया । आय: [ ऋ + उण् ] 1. सूअर 2. केंकड़ा 1 आरु (वि० ) [ ऋ + ऊ + णित्] भूरे रंग का । आरूढ (भू० क० कृ० ) [ आ + रूह +क्त] सवार, चढ़ा
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हुआ, ऊपर बैठा हुआ - आरूढ़ो वृक्षो भवता सिद्धा०, प्रायः कर्तृवाच्य में प्रयुक्त आरूढमद्रीन् - रघु० ६ । ७७ । आरुति: (स्त्री० ) [ आ + रुह + क्तिन्] चढ़ाव, ऊपर उठना, उन्नयन ( आलं० व शा० ) – अत्यारूढिर्भवति महतामप्यपभ्रंशनिष्ठा - श० ४, ५११ ।
आरेचित [आ + रिच् + णिच् + क्त ] भींची हुई या सिकोड़ी हुई ( आँख की भौहें ) ।
आरोग्यम् [अरोग + ष्यञ ] अच्छा स्वास्थ्य | आरोपः [ आ + रुह, + णिच्+घञ, पुकागमः ] 1. एक वस्तु के गुणों को दूसरी वस्तु में आरोपित करना - वस्तुन्यवस्त्वारोपोऽध्यारोपः वे० सू०, गले मढ़ना - दोषारोपो गुणेष्वपि - अमर० 2. मान लेना (जैसा कि 'सारोपा लक्षणा' में) 3. अध्यारोपण 4. बोझा लादना, दोषारोपण करना, इलज़ाम लगाना । आरोपणम् [ आ + रुह + णिच् + ल्युट् पुकागमः ] 1. ऊपर रखना या जमाना, रखना - आर्द्राक्षितारोपणमन्वभूताम् रघु० ७ २०, कु० ७।२८ (आलं) संस्थापन, जमा देना -- अधिकारारोपणम् ० ३, 2. पौधा लगाना, 3. धनुष पर चिल्ला चढ़ाना । आरोहः [ आ + रुह् + घञ.] 1. चढ़ने वाला, सवार, जैसा कि 'अश्वारोह' तथा 'स्यंदनारोह' 2 चढ़ाव, ऊपर जाना, सवारी करना 3. ऊपर उठी हुई जगह, उभार, ऊँचाई 4 हेकड़ी, घमंड 5 पहाड़, ढेर 6. स्त्री की छाती, नितम्ब, -सा रामा न वरारोहा - उद्भट, आरो
निबिड बृहन्नितम्ब : - शि० ८/८, 7. लम्बाई, 8. एक प्रकार की माप 9. खान । आरोहकः [ आ+रुह, + ण्वुल् ] सवार चालक ( हाँकने
वाला) ।
आरोहणम् [आ + रुह् + ल्युट् ] 1. सवार होने, ऊपर चढ़ने
या उदय होने की क्रिया - आरोहणार्थं नवयौवनेन कामस्य सोपानमिव प्रयुक्तम् - कु० ११३९, 2. ( घोड़े की) सवारी करना 3. जीना, सीढ़ी। आकि: [अर्कस्यापत्यम् -- इञ] अर्क का पुत्र, यम की उपाधि, शनि ग्रह, कर्ण, सुग्रीव, वैवस्वत मनु । आक्षं (वि० ) ( स्त्री० ) [ ऋक्ष+अण्] तारकीय, तारों
द्वारा व्यवस्थित अथवा तारों से सम्बद्ध |
आर्घा [ आ + अ + अच्+टाप्] एक प्रकार की पीली मधुमक्खी ।
आर्यम् [ आर्घा + यत् ] जंगली शहद ।
आर्च (वि० ) ( स्त्री० च ) [ अर्चा अस्त्यस्य ण] भक्त, पूजा करने वाला, पुण्यात्मा ।
आचिक (वि०) (स्त्री० की) [ऋच् + ठञ] ऋग्वेद संबंधी, या ऋग्वेद की व्याख्या करने वाला, कम् सामवेद का विशेषण |
आर्जवम् [ ऋजु + अण् ] 1. सरलता 2. स्पष्टवादिता, सद्व
तवि, खरापन, ईमानदारी, निष्कपटता, उदारहृदय होना- अहिंसा क्षान्तिराजवं- भग० १३७, क्षेत्रमार्जवस्य - का० ४५ – 3. सादगी, विनम्रता ।
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