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घातु से] 1. होना, रहना, विद्यमान होना (केवल । सत्ता)- नासदासीन्नौ सदासीत् - ऋग्० १०॥१२९, -नत्वेवाहं जातु नासम्-भग० २।१२, आसीदाजा नलो नाम नल० २१, 2. होना (अपूर्ण विधेयक की क्रिया या विधेयक शब्द के रूप में प्रयुक्त, बाद में संज्ञा, विशेषण, क्रियाविशेषण या और कोई समानार्थक शब्द आता है) धार्मिके सति राजनि -मनु० १११११, आचार्य संस्थिते सति ---५।८०, 3. संबंध रखना, अधिकार में करना (अधिकर्ता में संबं०)-यन्ममास्ति हरस्व तत् ..पंच० ४७६, यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा
–५।७०, 4. भागी होना--तस्य प्रेत्य फलं नास्ति मनु०३।१३९ 5. उदय होना, घटित होना... आसीच्च मम मनसि-का० १४२, 6. होना 7. नेतृत्व करना, हो जाना, प्रमाणित होना (संप्र० के साथ) स स्थाणः स्थिरभक्तियोगसुलभो निःश्रेयसायास्तु वः —विक्रम० १६१, 8. पर्याप्त होना (संप्र० के साथ) सा तेषां पावनाय स्यात् – मनु० ११२८६, अन्य पाल: परिदीयमानं शाकाय वा स्यात् लवणाय वा स्यात्
-जगन्नाथ, 9. ठहरना, बसना, रहना, बसना, आवास करना,-हा पितः क्वासि हे सुभ्र
-भटि०६।११, 10. विशेष संबंध रखना, प्रभावित होना (अधि० के साथ)- किं नु खलु यथा वयमस्यामेवमियमप्यस्मान् प्रति स्यात्-श० १, अस्तु --अच्छा, होने दो, एवमस्तु, तथास्तु-ऐसा ही होवे, स्वस्ति, अध्युक्त पूर्ण भूतकालिक क्रिया का रूप बनाने के लिए धातु से पूर्व जोड़ा जाने वाला "आस" कई बार धातु से पृथक करके लिखा जाता है--- तं पातयां प्रथममास पपात पश्चात्-रघु० ९।६१, १६६८६, अति-समाप्त होना, श्रेष्ठ होना, बढ चढ़ कर होना, अभि- संबंध रखना, अपने भाग का हिस्सेदार बनना यन्ममाभिष्यात्-सिद्धा०, आविस्-. निकलना, उभरना, दिखाई देना- आचार्यकं बिजयि मान्मथमाविरासीत्- मा० ११२६, प्रावुस्---प्रकट होना, ऊपर को उभरना,- प्रादुरासीसमोनुदः-- मनु० १।६, रघु० ११११५, व्यति - (आ० व्यतिहे, व्यतिसे, व्यतिस्ते) बढ़ जाना, बढ़ चढ़ कर होना, श्रेष्ठ या बढ़िया होना, मात कर देना--अन्यो व्यति
स्ते तु ममापि धर्मः- भटि० २।३५ ।। अस (दिवा० पर०)[ अस्यति, अस्त ] 1. फेंकना, छोड़ना,
जोर से फेंकना, (बन्दूक) दागना, निशाना लगाना, ('निशाना' में अधि०) तस्मिन्नास्थदिपीकास्त्रम --रघु० १२।२३, भट्टि १५४९१, 2. फेंकना, ले जाना, जाने देना, छोड़ना, छोड़ देना, जैसा कि 'अस्तमान' 'अस्तशोक' और 'अस्तकोप' में, दे० अस्त; अति--, निशाने से परे (तीर गोली आदि) फेंकना, |
) हावी होना; अत्यस्त दूर परे निशाना लगाकर, बढ़ चढ़ कर, (द्वि० त० स० में जुड़ कर,) अधि-,1. एक के ऊपर दूसरी वस्तु रखना 2. जोड़ना, 3. एक वस्तु की प्रकृति को दूसरी में घटाना, बाह्यधर्मानात्मन्यध्यस्यति-शारी, अप--1. फेंक देना, दूर करना, छोड़ना, त्याग देना, रद्दी में डालना, अस्वीकार करना--किमित्यपास्याभरणानि यौवने-कु. ५।४४, सारं ततो ग्राह्यमपास्थ फल्गु –पंच० १, शि० ११५५, संगरमपास्य- वेणी० ३१४, इत्यादीनां काव्यलक्षणत्वमपास्तम् स० द०, अस्वीकृत, निराकृत 2. हांक कर दूर कर देना, तितर बितर करना, अभि--, 1. अभ्यास करना, मश्क करना-अभ्यस्यतीव व्रतमासिघारम्— रघु० १३॥६७, मा० ९॥३२ 2. किसी कार्य को बार-बार करना, दोहराना- मृगकुलं रोमन्थमभ्यस्यतु---श० २।६, कु० २१५०, 3. अध्ययन करना, सस्वर पढ़ना, पढ़ना-- वेदमेव सदाऽभ्यस्येत् मनु० २।१६६, ४।१४७, उद्-, 1. उठाना, ऊपर करना, सीधा करना---पुच्छमुदस्यति सिद्धा०, 2. मुड़ जाना, 3. निकाल देना, बाहर कर देना, उपनि-1. निकट रखना, धरोहर रखना 2. कहना, संकेत करना सुझाव देना, प्रस्तुत करना-किमिदमपन्यस्तम्-श. ५, सदुपन्यस्यति कृत्यवर्त्म य:-कि० १३, 3. सिद्ध करना, 4. किसी की देख रेख में देना, सुपुर्द करना 5. सविवरण वर्णन करना, नि--1. उपक्रम करना, रखना, नीचे फेंकना-शिखरिष पदं न्यस्य मेघ० १३; दृष्टिपूतं न्यसेत्पाद-मनु० ६।४६, 2. एक ओर रखना, छोड़ना, त्यागना, परित्याग करना, तिलांजलि देना. स न्यस्तचिह्नामपि राजलक्ष्मी-रघु० २१७, न्यस्तशस्त्रस्य- वेणी० ३११८, इसी प्रकार -प्राणान् न्यस्यति 3. अन्दर रखना, किसी वस्तु पर रखना (अधिक के साथ)-शिरस्याशा न्यस्ता- अमरु ८२, चित्रन्यस्त - चित्र में उतारा हुआ--विक्रम० ११४, स्तनन्यस्तोशीरम-श० ३।९, लगाया हआ--अयोग्ये न मद्विधो न्यस्यति भारमण्यम्-भट्टि० १।२२, मेघ. ५९, 4. सौंपना, हवाले करना, देखरेख में रखना --.अहमपि तव सूनो न्यस्तराज्य:-..विक्रम० ५।१७, भ्रातरि न्यस्य मां-- भट्टि० ५।८२, 5. देना, प्रदान करना, वितरण करना-रामे श्रीन्यस्यतामिति–रघ० १२२२, 6. कहना, सामने रखना, प्रस्तुत करना- अर्थान्तरं न्यस्यति–मल्लि०शि० १११७ पर, निस् - 1. निकाल फेंकना, फेंक देना, छोड़ना, छोड़ देना, वापिस मोड़ देना,—निरस्तगाम्भीर्यमपास्तपुष्पकम-शि० १॥ ५५, ९।६३ 2. नष्ट करना, दूर करना, हराना, मारना, मिटाना--अह्नाय तावदरुणेन तमो निरस्तम् -~-रघु० ५।७१, रक्षांसि वेदी परितो निरास्थत
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