________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( 1137 ) -रक्तेनाचिक्लिदमि सैन्यैश्चातस्तरद्धतः-भट्रि० / स्तोकं महद्वा धनम-भर्त० 2 / 49 2. छोटा 3. कुछ 15 / 48, इच्छा० (तिस्तीर्षति--ते)। 4. अधम, नीच-क: 1. थोड़ी मात्रा, बूंद 2. चातक ii (स्वा० पर० स्तुणोति) प्रसन्न करना, तृप्त करना / पक्षी,-कम् (अध्य०) जरा सा, अपेक्षाकृत कम स्तु (पुं०) [स्तृ+क्विप् ] तारा। --पश्योदग्रप्लुतत्वाद्वियति बहुतरं स्तोकमा प्रयाति स्तुक्ष (भ्वा० पर० स्तुक्षति) जाना। -श०११७ / सम-काय (वि.) छोटे शरीर वाला, स्तृतिः (स्त्री०) [स्तृ+क्तिन् ] 1. फैलाना, बिछाना, प्रसार करना 2. ढकना, कपड़े पहनाना। थोड़ा सा शिथिल या अवसन्न-श्रोणीभारादलसगस्तृह, स्तुह, (तुदा० पर० स्तृहति, स्तहति) प्रहार मना स्तोकनम्रा स्तनाभ्यां -- मेघ० 82 / __ करना, चोट पहुंचाना, मार डालना। स्तोककः [स्तोकाप जरुबिन्दवे कायति धन्दायते-स्तोक स्स (क्रया० पर० स्तणाति, स्तुणीते, स्तीर्ण, इच्छा +के+क] चातक पक्षी-मनु० 12 // 67 / तिस्तरि (री) पति-ते, तिस्तीर्षते-) ढांपना, | स्तोकशः (अव्य.) [स्तोक+शस्] थोड़ा-थोड़ा करके, बखेरना आदि, दे० 'स्तु'। भव-दांपना, भरना, | कमी के साथ। बिछा देना-प्रकम्पयन् गामवतस्तरे दिश:-कि० 16 / स्तोतव्य (वि.) [स्तु+तव्यत्] प्रशंसनीय, इलाध्य, तारीफ 29, आ–ढकना, आच्छादित करना,-रघु०४।६५, के लायक-स्तोतव्यगुणसंम्पन्न: केषां न स्यात्प्रियो जनः / उप-, 1. वछेरना 2. क्रम से रखना, परि-, स्तोत (पुं०) स्तु+तच प्रशंसक, स्तुतिकर्ता। 1. फैलाना, विकीर्ण करना, प्रसार करना भट्टि० / स्तोत्रम् [स्तु+ष्ट्रन्] 1. प्रशंसा, स्तुति 2. प्रशस्ति, स्तुति१४।११ 2. ढांपना (आलं० से भी) अथ नागयथ- गान / मलिनानि जगत्परितस्तमांसि परितस्तरिरे-शि० 9 / 18 | स्तोत्रियः,-या [स्तोत्र+घ, स्त्रियो टाप् च] एक विशेष अभितस्तं पृथासूनः स्नेहेन परितस्तरे-कि० 1318 प्रकार की ऋचा, स्तोत्र का पद्य / 3. क्रम में रखना, वि--, 1. फैलाना, विकीर्ण | स्तोमः [स्तुम+घा] 1. रोकना, अवरुद्ध करना 2. विराम, करना 2. ढांपना, प्रेर०--फैलवाना, प्रसार करवाना यति 3. निरादर, तिरस्कार 4. सूक्त, प्रशस्ति 5. साम-जैसा कि 'पयोधरविस्तारयितकं यौवनम्' श० 1 / / वेद का एक प्रभाग 6. अन्तर्निविष्ट / 2. बढ़ना-रघु० 7 / 39 3. फलाना, प्रसार करना, | स्तोमः [स्त+मन] 1. प्रशस्ति, स्तुति, सूक्त 2. यज्ञ, सम्--, 1. फैलाना, बखेरना-प्रान्तसंस्तीर्णदर्भा:-श० आहुति –जैसा कि ज्योतिष्टोम या अग्निष्टोम में 417 2. बिछाना। 3. सोम द्वारा तर्पण 4. संग्रह, समुच्चय, संख्या, समूह, स्तेन (चुरा० उभ०---'स्तेन' का नामधातु-स्तेनयति-ते) / संघात–उत्तर० 11505. बड़ी मात्रा, वेर -भस्मचुराना, लूटना,—मनु० 8 / 333 / स्तोमपवित्रलाञ्चनमुरो घत्ते त्वचं रौरवीम् -उत्तर० स्तेनः [स्तेन् कर्तरि अच] चोर, लुटेरा-न तं स्तेना न 4 / 20, महावीर० १११८,--नम् 1. सिर 2. धन, चामित्रा हरन्ति न च नश्यति--मनु० 783, -- नम दौलत 3. बजान, धान्य 4. लोहे की नोक वाली छड़ी। चोरी करना, चुराना। सम-निग्रहः 1. चोरों। स्तोम्य (वि०) स्तिोम+यत इलाध्य, प्रशंसनीय / को दिया जाने वाला दण्ड 2. चोरी को रोकना / स्त्यान (वि.) [स्त्य+क्त और के रूप में संचित-मा० स्तेप i (म्वा० आ० स्तेपते) रिसना / 5 / 11, वेणी० 1121 2. धनीभूत, स्थूल, ठोस ____ii (चुरा० उभ० स्तेपयति-ते) भेजना, फेंकना। 3. मृदु, स्निग्ध, कोमल, चिकना 4. शब्दायमान, स्तेमः [स्तिन्+घञ] नमी, गीलापन / मुखर,--नम् 1. सघनता, ठोसपना, आकार या फैलाव स्तेयम् स्तेिनस्य भावः यत् न लोपः] 1. चोरी, लट-कु० में वृद्धि --दधति कुहरभाजामत्र भल्लूकयूनामनुरसित 135 2. चुराई हुई या चराये जाने के योग्य कोई गुरूणि स्त्यानमम्बकृतानि-मा० 9 / 6, उत्तर० 2 / 21, __वस्तु 3. कोई निजी या गुप्त चीज / महावीर० 5 / 41 2. चिकनाई 3. अमृत 4. ढीलापन, स्तेयिन् (पुं०) [स्तेय +-इनि] 1. चोर, लुटेरा 2. सुनार / / आलस्य 4. प्रतिध्वनि, गंज। स्तै (म्वा० पर० स्तायति) पहनना, अलंकृत करना। स्स्यायनम् स्त्यि+स्यटा ढेर के रूप में संचित करना, भीड़ स्तनम् [स्तेन+अण] चोरी, लूट / लगाना, समष्टि / स्तन्यम् [स्तेनस्य भावः ष्या] चोरी, लूट,-न्यः चोर।। स्त्येनः [स्त्ये+इनच] 1. अमृत 2. चौर। स्तमित्यम् [स्तिमित-+-ष्य] 1. स्थिरता, कठोरता, स्त्य (भ्वा० उभ० स्त्यायति-ते) 1. देर के रूप में एकत्र अटलता 2. जडता, सुन्नपना / / किया जाना, इधर-उधर फैलना, विकीर्ण होना स्तोक (वि.) [स्तुच+घञ] 1. अल्प, थोड़ा-स्तोके- -शिशिरकटुकषायः स्त्यायते सल्लकीनाम्-मा० नोन्नतिमायाति स्तोकेनायात्यधोगतिम्-पंच० 11150, 9 / 6, 2 / 21, महावीर० 5 / 41 3. प्रतिध्वनि, गूंज / 143 For Private and Personal Use Only