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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( धन के ऊपर आश्रित, निश्चयः निर्धारण, निर्णय, पति: 1 'धन का स्वामी', राजा, किचिद्विहस्यार्थपति बभाषे - रघु० १/५९, २/४६, ९१३, १८ १, पंच० १। ७४, 2. कुबेर की उपाधि, – पर, लुब्ध ( वि० ) 1 धन प्राप्त करने पर जुटा हुआ, लालची 2. कंजूस, - - प्रकृतिः (स्त्री०) नाटक के महान् उद्देश्य का प्रमुख साधन या अवसर, ( इन साधनों की संख्या पाँच हैं, ari fबन्दुः पताका च प्रकरी कार्यमेव च, अर्थप्रकृतयः पञ्च ज्ञात्वा योज्या यथाविधि - सा० द० ३१७ ), - प्रयोगः ब्याजखोरी, बंध: शब्दों का यथाक्रम रखना, रचना, पाठ, श्लोक, चरण श० ७१५ ललितार्थं बंधम् विक्रम० २११४, बुद्धि (वि०) स्वार्थी, बोध: वास्तविक आशय का संकेत, भेदः अर्थों में भेद -- अर्थभेदेन शब्दभेद:, - मात्रम्, त्रा सम्पत्ति, धन-दौलत, - युक्त (वि०) सार्थक, लाभः घन की प्राप्ति, -लोभ: लालच, - बाद: 1. किसी उद्देश्य की घोषणा, 2. निश्चयात्मक घोषणा, घोषणाविषयक प्रकथन, व्याख्यापरक टिप्पणी, किसी आशय की उक्ति या कथन, वाक्य ( इसमें उचित अनुष्ठान के करने से उत्पन्न फलों का वर्णन करते हुए किसी विधि की अनुशंसा की जाती हैं, साथ ही अपने पक्ष के समर्थन में ऐतिहासिक निदर्शन देकर यह बतलाया जाता है कि इसका उचित अनुष्ठान न करने से अनिष्ट फल मिलता है) 3. प्रशंसा, स्तुति, अर्थवाद एषः, दोषं तु मे कंचित्कथयउत्तर० १, - - विकल्प: 1 सचाई से इधर-उधर होना, तथ्यों का तोड़-मरोड़, 2. अपलाप, वैकल्प्यम् भी, - वृद्धि: ( स्त्री०) धन संचय, व्ययः धन का खर्च करना, ज्ञ (वि०) रुपये-पैसे की बातों का जानकार - शास्त्रम् 1 धन-विज्ञान (सार्वजनिक अर्थशास्त्र ) २. राजनीति विज्ञान, राजनीतिविषयक शास्त्र, राजनय - ४० १२०, इह खलु अर्थशास्त्रकारास्त्रिविधां सिद्धिमुपवर्णयति मुद्रा० ३. व्यवहारिन् राजनीतिज्ञ, 3. व्यावहारिक जीवन का शास्त्र, शौचम् रुपये-पैसे के मामले में ईमानदारी या खरापन - सर्वेषां चैव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम् - मनु० ५१०६, - संस्थानम् 1. धन का संचय 2. कोष, संबन्ध: वाक्य या शब्द से अर्थ का संबंध, सारः बहुत घन- पंच० २०४२ – सिद्धि: ( स्त्री० ) अभीष्ट सिद्धि, सफलता । अर्थतः ( अव्य० ) [ अर्थ + तसिल् ] 1. अर्थ या किसी विशेष उद्देश्य का उल्लेख करते हुए, यच्चार्थतो गौरवम् - मा० १७ अर्थ की गहराई, 2. वस्तुतः, वास्तव में, सचमुच, न नामतः केवलमर्थतोऽपि - शि० ३।५६, 3. धन के लिए, लाभ या प्राप्ति के लिए ऐश्वर्यादनपेतमीश्वरभयं लोकोर्थतः सेवते - मुद्रा० १ । १४. 4. के कारण । ९८ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थना [अर्थ + युच्+टाप्] प्रार्थना, अनुरोध, नालिश, याचिका - ० ५।११२ । अर्थवत् (वि० ) [ अर्थ + मतुप् ] 1. धनवान् 2. सार्थक, अभिप्रायः या अर्ध से परिपूर्ण - अर्धवान् खलु मे राजशब्दः --- श० ५, 3. अर्थ रखने वाला - अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् - पा० ११२१४५ 4. किसी प्रयोजन को सिद्ध करने वाला, सफल, उपयोगी । अर्थवत्ता [ अर्थ + मतुप् + तल्+टाप्] धन-दौलत, सम्पत्ति । अर्थात् ( अन्य ० ) [ 'अर्थ' का अपा० का रूप ] 1. सच बात तो यह है कि, निस्सन्देह, वस्तुतः - मूषिकेण दण्डो भक्षित इत्यनेन तत्सहचरितमपूपभक्षण मर्यादायातं भवति - सा० द० १०, 2. परिस्थिति के अनुसार, तथ्यानुसार 3. कहने का भाव यह है कि, नामों के अनुसार | afre: [ अर्थयते इत्यर्थी + कन् ] 1. चिल्लाने वाला, चौकीदार, 2. विशेषत: भाट जिसका कर्तव्य दिन के विभिन्न निश्चित समयों की (जैसा कि जागने का, सोने का, या भोजन करने का ) घोषणा करना है । अर्थित ( भू० क० कृ० ) [ अर्थ +क्त] प्रार्थित, याचित, इच्छित - तम् चाह, इच्छा, नालिश । अति-त्वम् [अर्थिन् + तल् टाप्, त्वल् वा ] 1. मांगना, प्रार्थना करना, 2. चाह, इच्छा । afra ( वि० ) [ अर्थ + इनि] 1. प्राप्त करने की चेष्टा करने वाला, अभिलाषी, इच्छुक - करण० के साथ अथवा समास में— कोषदण्डाभ्याम् — मुद्रा० ५, को वधेन ममार्थी स्यात् -- महा०, अर्थार्थी - पंच० ११४/९ 2. अनुरोध करने वाला, या किसी से कुछ मांगनेवाला (संब० के साथ) - अर्थी वररुचिर्मेऽस्तु कथा० 3. मनोरथ रखने वाला, (पुं०) 1. याचक, प्रार्थयिता, भिक्षुक, दीन याचक, निवेदक, विवाहार्थी - यथाकामाचितार्थिनां -- रघु० ११६, २१६४, ५/३१, ९/२७, कोऽर्थी गतो गौरवम्-पंच० १।१४६, कन्यारत्नमयोनिजन्म भवतामास्ते वयं चार्थिन:- महावी० ११३०, 2. (विधि में) वादी, अभियोक्ता, प्राभियोजक, स धर्मस्थसखः taarप्रत्यर्थिनां स्वयं ददर्श संशयच्छेद्यान् व्यवहारानतन्द्रितः- रघु० १७/३९, 3. सेवक अनुचर । सम० - भावः याचना, माँगना, प्रार्थना मा० ९१३०, --सात् ( क्रि० वि०) भिखारियों के अधिकार में करके - विभज्य मेरुर्न यदर्थिसात्कृत: - नै० १।१६ । अर्थी (वि० ) [ अर्थ + छ] 1. पूर्वनिदिष्ट, अभिप्रेत, कष्ट उठाना भाग्य में बदा था - शरीरं यातनार्थीयं - मनु० १२।१६, 2. संबंध रखने वाला - कर्म चैव तदर्थीय भग० १७।२७ । अयं (वि० ) [ अर्थ + ण्यत् ] 1. जिससे सर्वप्रथम याचना की जाय, 2. योग्य, उचित 3. उपयुक्त, आशय से For Private and Personal Use Only
SR No.020643
Book TitleSanskrit Hindi Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaman Shivram Apte
PublisherNag Prakashak
Publication Year1995
Total Pages1372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size37 MB
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