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आप्टे संस्कृत-हिन्दी-कोश
2 विस्मयादि द्योतक अव्यय-यथा (क) 'अ अवम नागरी वर्णमाला का प्रथम अक्षर ।
द्यम्' यहाँ दया ( आह, अरे) (ख) 'अ पचसि त्वं अः[अव्+ड] 1 विष्णु, पवित्र 'ओम' को प्रकट करने जाल्म' यहाँ भर्त्सना, निंदा (धिक्, छि:) अर्थ को वाली तीन (अ+उ+म्) ध्वनियों में से पहली ध्वनि प्रकट करता है। दे० 'अकरणि' 'अजीवनि' भी।
-अकारो विष्णुरुद्दिष्ट उकारस्तु महेश्वरः। मकारस्तु (ग) संबोधन में भी प्रयुक्त होता है यथा 'अ अनन्त' स्मृतो ब्रह्मा प्रणवस्तु-त्रयात्मकः ।। 2 शिव, ब्रह्मा, वायु, (घ) इसका प्रयोग निषेधात्मक अव्यय के रूप में भी या वैश्वानर।
होता है। 3 भूतकाल के लकारों (लङ्ग, लह और (अव्य०) 1 लैटिन के इन (in) अंग्रेजी के इन (in) लङ) की रूपरचना के समय धातु के पूर्व आगम
या अन ( un ) तथा यूनानी के अ (a) या (un) के रूप में जोड़ा जाता है यथा अगच्छत, अगमत, के समान नकारात्मक अर्थ देने वाला उपसर्ग जो कि अगमिष्यत् में। निषेधात्मक अव्यय न के स्थान पर संज्ञाओं, | अऋणिन (वि.) [नास्ति ऋणं यस्य न० ब०] (यहाँ विशेषणों एवं अव्ययों के (क्रियाओं के भी) पूर्व लगाया 'ऋ' को व्यंजन ध्वनि माना गया) जो कर्जदार न जाता है। यह 'अ' ही 'अऋणिन्' शब्द को छोड़कर हो, ऋणमुक्त ('अनृणिन्' शब्द भी इसी अर्थम शेष स्वरादि शब्दों से पूर्व 'अन्' बन जाता है।
प्रयुक्त होता है।) नके सामान्यतया छः अर्थ गिनाये गये है :---. अंश (चुरा० उभ० अशंयति-ते) बांटना, वितरण करना, (क) सादृश्य-समानता या सरूपता यथा 'अब्राह्मणः' आपस में हिस्सा बांटना, 'अंशापयति' भी इसी अर्थ ब्राह्मण के समान (जनेऊ आदि पहने हुए) परन्तु में प्रयुक्त होता है। वि-1 बांटना 2 धोखा ब्राह्मण न होकर, क्षत्रिय वैश्य आदि। (ख) अभाव
देना। अनुपस्थिति, निषेध, अभाव, अविद्यमानता यथा "अज्ञा- | अंशः [ अंश् +अच् ] 1 हिस्सा, भाग, टुकड़ा; सकृदंशो नम्" ज्ञान का न होना, इसी प्रकार, अक्रोधः, अनंगः, निपतति-मनु० ९/४७ रघु०८।१६:-अंशेन दर्शितानअकंटकः, अघट:' आदि। (ग) भिन्नता अन्तर कुलता-का० १५९ अंशतः; 2 संपत्ति में हिस्सा, या भेद यथा 'अपट:' कपड़ा नहीं, कपड़े से भिन्न या दाय स्वतोंशत:-मनु० ८।४०८, ९।२०१; याज्ञ० अन्य कोई वस्तु । (घ) अल्पता-लघुता, न्यूनता, २१११५, 3भिन्न की संख्या, कभी-कभी भिन्न के लिए अल्पार्थवाची अव्यय के रूप में प्रयुक्त होता है-यथा भी प्रयुक्त 4 अक्षांश या रेखांश की कोटि ५ कंधा 'अनुदरा' पतली कमर वाली (कृशोदरी या तनुम- । (सामान्यतः 'कंधे' के अर्थ में, 'अंस' का प्रयोग होता ध्यमा)। (च) अप्राशस्त्य-बुराई, अयोग्यता तथा है-दे०)। सम०-अंशः अंशावतार, हिस्से का लघुकरण का अर्थ प्रकट करना यथा 'अकाल: गलत हिस्सा; -अंशि (क्रि० वि०) हिस्सेदार;-अवतरणम या अनुपयुक्त समय ; 'अकार्यम्' न करने योग्य, अनु- --अवतार:-पृथ्वी पर देवताओं के अंश को लेकर चित, अयोग्य या बुरा काम । (छ) विरोष- जन्म लेना, आंशिक अवतार, तार इव धर्मस्य-दश० विरोधी प्रतिक्रिया, वैपरीत्य यथा 'अनीतिः' नीति- १५३; महाभारत के आदिपर्व के ६४-६७ तक विरुद्धता, अनैतिकता, 'असित' जो श्वेत न हो, काला । अध्याय ; भाज, -हर, हारिन् (वि०) उत्तरा उपर्युक्त छः अर्थ निम्नांकित श्लोक में एकत्र संकलित धिकारी, सहदायभागी--पिण्डदोशहरश्चैषां पूर्वाभावे है- तत्सादृश्यमभावश्च तदन्यत्वं तदल्पता। अप्राशस्त्यं परः परः--याज्ञ० २।१३२-१३३-सवर्णनम्-भिन्नों विरोधश्च नार्थाः षट् प्रकीर्तिताः ।। दे० 'न' भी। को एक समान हर में लाना; --स्वरः मुख्य स्वर,
कृदन्त शब्दों के साथ इसका अर्थ सामान्यतः मूलस्वर। "नहीं" होता है यथा 'अदग्ध्वा' न जलाकर, 'अपश्यन्' | अंशकः [ अंश्+ण्वुल, स्त्रियां--अंशिका ] 1 हिस्सेदार, न देखते हुए । इसी प्रकार 'असकृत्' एक बार नहीं। । सहदायभागी, संबंधी 2 हिस्सा, खण्ड, भाग,-कम्
कभी-कभी 'अ' उत्तरपद के अर्थ को प्रभावित | सौर दिवस । नहीं करता यथा 'अमूल्य', 'अनुत्तम', यथास्थान । । अंशनम् [ अंश+ल्युट ] बांटने की क्रिया।
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