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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संशयतिमिरप्रदीप । अवश्य कहेंगे कि उन लोगों का यह कथन चन्द्रमा के ऊपर धूल फेकने के समान है जो लोग भहारकों के व्यर्थ अपवाद करने में दत्तचित्त हैं। मानलिया जाय कि वे निग्रन्य गुरु के तुल्य नहीं है परन्तु इतना न होने से वे इतने बिनय के भो के योग्य न रहे जो विनय साधारण अथवा मांसभक्षो आदि धर्मवाह्य मनुष्यों का किया जाता है ? केवल वर्तमान प्रवृति को देख कर परम्परा तक को कलंकित बना देना बुद्धिमानी नहीं है । खेर ! भट्टारक तो दूर रहे परन्तु शास्त्रों में मुनियों तक के विषय में अनाचार देखाजाता है तो, किसी एक अथवा दो मुनियों के दुराचार से सारे पवित्र मुनि समाज को दोष देना ठोक कहा जा सकेगा? नहिं । उसो तरह सब जगह समझ लेना चाहिये । मैं नहिं कह सकता कि लोगों के हृदय में यह कल्पना कैमे स्थान पालेती है कि भहारकों ने प्राचीन मार्ग के विरुद्ध ग्रन्थों को बनादिये हैं। यह वात उस समय ठीक कही जातो जव दश पांच, अथवा दो एक, ग्रन्य जिनमत के मिद्धान्त के विरुद्ध बताये होते । परन्तु किसो ने आज तक इस विषय को उपस्थित करके अपने निर्दोष होने की चेष्टा नहीं की । क्या अब भी कोई ऐमा इस जगत में है जो भट्टारकों के बनाये हुवे ग्रन्थों को प्राचीन गर्ग के विरुद्ध मिड कर सके ? यदि कोई इस विषय में हाथ डालेंगे तो उनका हम बड़ा भारी अनुग्रह मानेंगे। __खैर ! इस विषय को चाहे कोई उठावें अबवा न उठावें हम अपने पाठकों को एक दो विषयों को लेकर इसबात को सिद्ध कर बताते हैं कि मट्टारकों को जितना कथन है वह For Private And Personal Use Only
SR No.020639
Book TitleSanshay Timir Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherSwantroday Karyalay
Publication Year1909
Total Pages197
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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