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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संशयतिमिरप्रदीप | ४ श्राज्ञा का भय रहना चाहिये । कदाचित् आरंभो हिंसा कहोगे तो, पुष्पों का चढ़ाना तुम्हारे कथन से ही सिद्ध हो जायगा । क्योंकि गृहस्थों को संकल्पो हिंसा के छोड़ने का उपदेश है । आरंभी हिंसा का नहीं। इसे हम स्वीकार करते हैं कि यद्यपि धर्म कार्यों में किसी अंश में हिंसा होतो है परन्तु इन्हें प्रचुर पुण्य के कारण होने से वह हिंसा नहीं मानी जा सकती । इसी तरह धर्मसंग्रह के कर्त्ता का भो अभिमत है :जिनालयकृतौ तौर्थयात्रायां विम्बपूजने । हिंसा चेत्तत्र दोषांशः पुण्यराशौ न पापभाक् ॥ अर्थात् - जिन मन्दिर के बनाने में, तीर्थों को यात्रा करने में, जिन भगवान् की पूजन करने में, हिंसा होती है परन्तु इन कार्यों के करने वालों को पुण्य बहुत होता है इसलिये वह हिंसा का अंश पापों का कारण नहीं हो सकता । किन्तु : जिनधर्मोद्यतस्यैव सावद्यं पुण्यकारणम् । अर्थात् - जो धर्मकार्यों के करने में सदैव प्रयन्त शोल रहते हैं उन्हें सावध, पुण्य का कारण होता है । भगवान् को पूजन करना धर्म कार्य है उस में और लोग सेंगे ? हम यदि किसी तरह का अन्याय करते तो, बेशक यह ठोक हो सकता था। खैर इतने पर भो वे इसी बात को पकड़े रहें तो क्या उनके कहने से हमें अपना धर्म छोड़ देना चाहिये ? नहीं । ढूंढिये लोग मूर्त्ति पूजन का निषेध करते हैं । वैष्णव धर्म को निन्दा करते हैं । दुर्जन सज्जनों को | For Private And Personal Use Only
SR No.020639
Book TitleSanshay Timir Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherSwantroday Karyalay
Publication Year1909
Total Pages197
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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