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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संशयतिमिरप्रदीप। इत्यादि अनेक शास्त्रों में मचित्त पुष्यों के चढ़ाने की प्राज्ञा है। परन्तु अब तो कितने लोग सचित्त पुष्पों के चढ़ाने में पाना कानी करते हैं। उनका कहना है कि, मान लिया जाय कि मचित्त पुष्पों के चढ़ाने की आज्ञा है, परन्तु द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावादिकों के अनुसार यह ठीक नहीं है। कितने कारणों से किसी र जगह शास्त्रों को प्राज्ञा भो गौण माननी पड़ती है। शास्त्रों में तो मोतियों के अक्षत, तथा रत्नों के दोपक भी लिखे हुवे है परन्तु अभी उनका चढ़ाने वाला तो देखने में नहीं पाता । इसी तरह पुष्पों के विषय को भी सचित्तादि दोषों के कारण होने से गौण कर दिया जाय तो हानि क्या है ? द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावादिकों का आश्रय लेकर सभी प्राज -कल अपनी २ बातों को दृढ़ करते हैं। परन्तु मैं नहीं समझता कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावादिकों का क्या आशय है ? मेरी समझ के अनुसार तो इनका यह आशय कहा जाय तो कुछ अनुचित नहीं है। द्रव्य, क्षेत्र, कालादिकों का यह ता. स्पर्य समझना चाहिये कि किसी काम को शक्ति के अनुसार करना चाहिये। मान लो कि धर्म कार्य में हमारी शक्ति हजार रुपयों के लगाने की है तो उतनाही लगाना चाहिये। शक्ति के बाहर काम करने वालों को अवश्या किसी समय में विचारणीय हो जाती है इसे सब कोई स्वीकार करेंगे। इसी तरह समझ लो कि इस विकराल कलिकाल में साधु व्रत ठोक तरह रक्षित नहीं रह सकता। इसलिये रहस्थ अवस्था में हो रहकर अपना आत्म कल्याण करना चाहिये । यही ट्रव्य, क्षेत्र, काल, भावादिकों का मतलब कहा जा सकता है । इसके विपरीत धर्म कार्यों में किसी तरह हानि बताना ठीक नहीं है। For Private And Personal Use Only
SR No.020639
Book TitleSanshay Timir Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherSwantroday Karyalay
Publication Year1909
Total Pages197
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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