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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संशयतिमिरप्रदीप। २१ बुद्धिवाले के । परन्तु ये प्राचीन नहीं है ऐसा कहने में किसी की हानि भी नहीं है। खैर ! प्राचीन न होकर भी यदि शास्त्र विहित होते तो, हमें किसी तरह का विवाद नहीं था। परन्तु केवल प्राचीनशाखों को अपनी की हुई पसत्तको से सदोष बताना यह भी अनुचित है। इन दोहों का मतलब अर्थात् यों कहो कि अपने दिलो विचार बुद्धिमानों की दृष्टि में कहां तक प्रमाण भूत हो सकेंगे। इसे मैं नहीं कह सकता । लेखक महाशय ने जिनभगवान के ऊपर गन्धपुष्पादिकों के चढ़ने से उन्हें कामों पुरुष को उपमादी है यह उनके शान्त भाव का परिचय समझना चाहिये । जरा पाठक विचार कि महाराज मरत चक्रवर्ति के विषय में “ भरतजी घरहो में वै. रागी" यह किम्बदन्तो आज तक चलौ पातो है । परन्तु यदि साथ ही उनके ध्यानक हजार अङ्गनाओं आदि ऐश्वर्य के ऊपर भी ध्यान दिया जाय तो, कोई इस तरह का उहार नहीं निकाल सकता। और उनके प्रान्सरङ्गिक पवित्र परिणामों की पोर लक्ष्य देने से यह लोकोक्ति अनुचित भी नहीं कही जा सकती। इतने प्रभूत ऐश्वर्यादिकों के होने पर भी महाराज भरत चक्रवर्ति के सम्बन्ध में किसी अन्धकार ने उन्हें यह उपमा नहीं दी कि वे इतने पाडम्बर के संग्रह के सम्बन्ध से कामुक हैं। उसी प्रकार एहस्थ अवस्था में रहते हुवं तीर्थंकर भगवान को भी किसी ने कामो नहीं लिखा। फिर शास्त्रानुसार किंचित् गन्ध पुष्पादिकों के सम्बन्ध से त्रिभुवन पूजनीय जिनदेव के विषय में इसतरह प्रश्नोल शब्द के प्रयोग को कोन अभिभव को दृष्टि से न देखेगा? कदाचित् कहो कि यह कहना तो ठोक है परन्तु जो For Private And Personal Use Only
SR No.020639
Book TitleSanshay Timir Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherSwantroday Karyalay
Publication Year1909
Total Pages197
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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