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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संशयतिमिरप्रदीप। १६९ प्रश्न-तुम्हारा यही कहना है कि इन पदों से जिनदेव से भिन्न भी कोई और देवता प्रतीति होते हैं। अस्तु, जिनदेव से अन्य साधु, आचार्य, सरस्वती, आदि का ग्रहण कर लेंगे फिर तो किसी तरह का विवाद नहीं रहेगा? उत्तर यह कहना भी नहीं ठीक है क्योंकि श्लोक में "आहूता ये पुरा देवा” अर्थात् जो देवता मुझ करके आव्हानन किये गये हैं। इसमें देवशब्द पड़ा हुआ है साधु, आचायर्यादिक तो देवशब्द से आव्हानन नहीं किये जाते हैं इसलिये वास्तव में शासनदेवताओं का ही ग्रहण है। इन्द्रनान्दिसहिता में विसर्जन के समय इसी तरह लिखा हुआ है देवदेवार्चनार्थं ये समाहूताश्चतुर्विधाः। ते विधायाऽईतां पूजा यान्तु सर्वे यथायथम् ॥ अब तो समाधान हुआ न ? रही यह बात कि पूर्वश्लोक में “ ते मयाऽभ्यर्चिता भक्तया " यह पद है इसका तात्पर्य भक्ति से अर्थात् विनय पूर्वक सत्कार किये हुवे। और यह ठीक भी तो है क्योंकि सत्कार तो बिनय पूर्वक ही होता है । जिस में भक्ति नहीं फिर उसका सत्कार ही क्या होगा । भक्ति का यह अर्थ नहीं है कि जैसे जिनभगवान पूजे जाते हैं वैसे ही शासनदेवता भी। इसी से श्लोक में “लब्धभागायथाक्रमम्" पद की सार्थकता है। यशस्तिलक में भी अभिषेक विधि में शासनदेवताओं का जिकर आया है। For Private And Personal Use Only
SR No.020639
Book TitleSanshay Timir Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherSwantroday Karyalay
Publication Year1909
Total Pages197
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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