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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संशयतिमिरप्रदीप। १५१ बहुत कुछ लिखना है । पहले दूसरी शंका का समाधान किये स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा की रीति से शासन देवताओं का निषेध नहीं हो सकता। किन्तु यह बात हम भी मानते हैं कि जिसने जैसा कर्म उपार्जित किया है उसी के अनुसार उसे फल भी मिलेगा इसी तरह नीतिशास्त्र भी कहता है कि अवश्यं हनुं भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् । अपने किये हुए शुभ तथा अशुभ कर्म अपने को ही भोगने पड़ते हैं। उसे जिन भगवान तक भी न्यूनाधिक नहीं कर सकते फिर शाशन देवता कुछ कर सकेंगे यह नहीं माना जा सकता। इसमें विवाद ही क्या है ? विवाद तो शाशनदेवताओं का सत्कारादि करना चाहिये या नहीं? इस विषय पर है । कदाचित् कहो कि ऊपर की बात से प्रयोजन क्यों नहीं उस से तो हमारा बड़ा भारी प्रयोजन सधेगा। क्योंकि जब शासन देवताओं से हमारा प्रयोजन ही नहीं निकलता फिर उनके पूजनादिक से लाभ क्या है ? इसी से कहते है कि स्वामिकार्तिके यानुप्रेक्षा के अनुसार शासनदेवताओं का ठीक निषेध हो सकेगा? यह समझ का भ्रम है । स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा का तात्यर्प यह नहीं है किन्तु वह कथन अशरण भावना का है और अशरण भावना के कथन की शासनदेवताओं के कथन से समानता नहीं जचती । यदि मान लिया जाय कि शासन देवताओं का निषेध ऊपर के कथन से हो सकता है तो यह भी कह सकते हैं कि एक तरह से जिन भगवान् की सेवा वगैरह से भी कुछ नहीं हो सकेगा क्योंकि जिन भगवान् भी तो किसी For Private And Personal Use Only
SR No.020639
Book TitleSanshay Timir Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherSwantroday Karyalay
Publication Year1909
Total Pages197
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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