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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ___ संशयतिमिरप्रदीप। १४७ कार्तिकासितपक्षस्य चतुर्दश्याः सुपश्चिमे । यामे सन्मतितीर्थेशः कर्मबन्धादभूत्पृथक् ॥ सबधूकैन किवगैर्नरनारीखगेश्वरैः। तत्क्षणे मोक्षकल्याणपूजाकृता सुखाप्तये ॥ अर्थात्-कार्तिक कृष्ण चतुंदशी की रात्रि के अन्तिम प्रहर में भगवान् सन्मति कर्मबन्ध से अलग हुवे हैं अर्थात्-मोक्ष के आधपति हुवे हैं। ऐसा समझ कर उसी समय देव, देवाङ्गना, मनुष्य, विद्याधरादिको ने त्रैलोक्येश्वर के मोक्ष कल्याणकी भक्ति पूर्वक पूजन की । महापुराण में भगवजिनसेनाचार्य ने भी महाराज वज्रजंघ विषयक कथा रात्रि पूजन के सम्बन्ध में लिखी है। इत्यादि शास्त्रों से जानाजाता है किरात्रि पूजन करना नैमित्तिक विधि में योग्य है। किसी तरह यह विषय सदोष नहीं कहा जा सकता। प्रश्न--मानलिया जाय कि रात्रि में पूजन करनाचाहिये,परन्तु यदि उसी नैमित्तिक विधि को दिनमही की जाय तो हानि क्या है ? अरे ! और कुछ नहीं तो आरंभादि सा वद्य कर्मों से तो बचेंगे? उत्तर-जब रात्रि में पूजन करना स्वीकार करतेहो तो फिर उसमें प्रवृत्ति करना चाहिये । व्यर्थ मिथ्या मनकल्पना को हृदय में स्थान देना ठीक नहीं है। जब शास्त्रों में रात्रि पूजन केलिये आशा है फिर उसमें कहना कि दिन में करने से क्या हानिहै? हानि है या नहीं इसे हम क्या कह यहतो स्वयं अनुभव में आसकता है कि जो हानि आचार्यों की आज्ञा के भंग करने से होती है वही For Private And Personal Use Only
SR No.020639
Book TitleSanshay Timir Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherSwantroday Karyalay
Publication Year1909
Total Pages197
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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