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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संशयतिमिरप्रदीप । मासुक जल ते न्हाय वस्त्रवेढि मग निरखते । प्रतिमासन करि जाय बैठि पूज जिन की करहु । इत्यादि शास्त्रों के अवलोकन से यह नहीं कहा जा सकता कि बैठकर पूजन करना ठीक नहीं है। और जो लोग बैठकर पूजन करने में अविनय बताकर उसका निषेध करते हैं मेरी समझ के अनुसार वे बैठी पूजन में अविनय बताकर स्वयं अधिनय करते हैं ऐसा कहने में किसी तरह की हानि नहीं है। किसी विषय के निषेध अथवा विधान का भार महर्षियों के बचनों पर है इसलिये उसी के अनुसार चलना चाहिये । यही कारण हैं कि आचार्यों ने कन्दमूल, मांस, मद्य और मदिरा आदि वस्तुओं का सेवन पाप जनक बतलाया है उसके विधान का आज कोई साहस नहीं कर सकता। फिर यही श्रद्धा अन्य विषयों में भी क्यों नहीं की जाती ? वह आचार्यों की आशा नहीं है ऐसा कहने का कोई साहस करेगा क्या ? नहिं नहिं । कहने का तात्पर्य यह है कि जब महर्षियों के बचनों में किसी तरह भी अमत्कल्पनाओं की संभावना नहीं कही जा सकती तो फिर उन्हीं के अनुसार हमें अपनी बिगड़ी हुई प्रवृत्ति को सुधारनी चाहिये । यही प्राचीन मुनियों के उपकार के बदले कृतज्ञता प्रगट करना है । इसविषय की एक कितनी अच्छी श्रुति है उसपर ध्यान देना चाहियेः न जहाति पुमान्कृतज्ञतामसुभङ्गेऽपि निसर्गनिर्मलः । अर्थात्-प्राणों के नाश होने पर भी स्वभाव से पवित्र पुरुष कृतज्ञता को नहीं छोड़ते हैं। इसी उत्तम नीति का प्रत्येक पुरुष को अनुकरण करते रहना चाहिये । For Private And Personal Use Only
SR No.020639
Book TitleSanshay Timir Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherSwantroday Karyalay
Publication Year1909
Total Pages197
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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