SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संशयतिमिरप्रदीय। है उसके ग्रहण करने से आस्रवकर्म का बन्ध होता है । उल्टा अर्थ करके लोगों को सन्देह पैदा करना ठीक नहीं है। यदि गन्धमाल्य के ग्रहण करने को मुषितद्रव्य कहा जाय तो, फिर गन्धोदक मुषितद्रव्य क्यों नहीं? इसमें क्या विशेषता है और गन्धमाल्य में क्या न्यूनता है इसे लिखना चाहिये । इसी विषय का अर्थात्-जिन भगवान के चरणों पर चढ़े हुव गन्ध माल्य के ग्रहण करने का उपदेश देने वाले, आदि पुराण में भगवाजिन सेनाचार्य, उत्तरपुराण में गुणभद्राचार्य आदि महर्षियों ने ठीक नहीं कहा है ऐसा कहने में जिह्वा को संकुचित नहीं होना पड़ेगा क्या ? यह विचारना चाहिये। अभिषेक के बाद पुष्पमाला के न्योछावर करने में इस तरह शास्त्र में लिखा हुआ मिलता हैः श्री जिनेश्वरचरणस्पर्शादना पूजा जाता सा माला महाभिषेकावसाने बहुधनेन ग्राह्या भव्यश्रावकेनेति । यह श्रुति जिनयज्ञकल्प प्रतिष्ठा पाठ की है। अर्थात्-जिनभगवान् के चरण कमलों के स्पर्श से अनमौल्य पूजन हुई है इसलिये वह पुष्पमाला भक्तिमान् श्रावकों को असीम धन खर्च करके ग्रहण करना चाहिये । कहिये पाठक वृन्द ! शास्त्रों का कथन ठीक है न ? हम कहां तक कहे यदि एक दो क्रियाओं में ही भेदभाव होता तो सन्तोष ही कर लेते परन्तु जगहँ २ यह विषमता है फिर यदि ऐसे ही उपेक्षा कर ली जाय तो शास्त्रमार्ग तो किसी दिन बिल्कुल अन्तरित हो जायगा इसलिये हमारा कर्त्तव्य है कि हम उसके यथार्थ मन्तव्य को प्रगट करते रहे जिस से लोगों की श्रद्धा में न्यूनता न होने For Private And Personal Use Only
SR No.020639
Book TitleSanshay Timir Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherSwantroday Karyalay
Publication Year1909
Total Pages197
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy