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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीहमीर के पुत्र थे। इन्होंने यह स्फुटार्था नाम की टीका रचना सं. १५१३ में की है। संघपटक जैसे दुसरे काव्य की टीका १६ वर्ष की अवस्था में बनाना उन के पाण्डित्य का द्योतक है। ___यह स्फुटार्थी नाम की टीका सामान्य सी ही है। टीकाकार कई २ स्थलों पर शान्दिक पर्यायों का कथन त्याग कर भावार्थ-तात्पर्य मात्र ही प्रकट करने को उत्सुक प्रतीत होती है, अतः कई स्थलों का विवेचन अस्पष्टसा रह गया है। साथ ही इनके सन्मुख बृहट्टोका होने के कारण कई स्थानों में उन्हीं शब्दों का अक्षरसः वाक्यविन्यास कर दिया है। इस में आश्चर्य की वस्तु यह है कि इस काव्य की केवल २९ पद्य की टीका-प्राप्त नहीं होती है। इस सम्पादन में पू. उपाध्यायजीने तीन प्रतियों का उपयोग किया है, और इस की एक प्रति मेरे संग्रह में भी है, पर किसी में भी इस श्लोक की टीका दृष्टिगोचर नहीं होती हैं। अतः इस प्रकाशन में स्थानरिक्त न रखकर श्रीहर्षराज गणि की ही २९वें पद्य की टीका के रूप में दी है। ___ हर्षराज-ये श्रीजिनभद्रसूरि के शिष्य महोपाध्याय श्रीसिद्धान्तरुचि के प्रशिष्य उ. श्री अभयसोम के शिष्य थे। इन के सम्बन्ध में विशेष वृत्तान्त ज्ञात नहीं होता है। इस की प्रशस्ति में रचनासंवत् का उल्लेख भी नहीं है, पर महो० श्री सिद्धान्तरुचि के प्रशिष्य होने कारण इसकी रचना १६वीं शताब्दि के प्रारंभ में ही हुई है । यह लघुवृत्ति वस्तुतः लघुत्ति नहीं है, किन्तु श्रीजिनपति की बृहट्टीका का संक्षिप्त संस्करण मात्र ही है। बृहट्टीका में प्रपंचित पक्ष विपक्षप्रतिपादन, आगमिक उद्धरण इत्यादि का त्याग कर मूलग्रन्थानुसारिणी समप्र टीका का प्रारम्भ से अन्त तक पंफि-पंक्ति अक्षर-अक्षर का उद्धरण कर संक्षिप्त संस्करण तैयार किया है। उदाहणार्थ केवल ३८वें पद्य की टीका की कुछ पंक्तिये ही देखिये जिनपतिसूरि टीका-" साम्प्रतं प्रकरणकारः प्रकरणं समाप्नुवन्निष्टदेवतास्तवछद्मनाऽवसानमाल सूचयंश्चक्रबन्धेन स्वनामधेयमाविर्विभावयिषुराह 'बिभ्राजिष्णु। व्याख्या-जिनं वन्दे इति सम्बन्धः । 'विभ्राजेष्णुं' त्रिभुवनातिशायि चतुस्त्रिंशदति शयत्वेनात्यन्तं शोभमानं, 'अगर्व' उच्छिन्नाऽहङ्कारं 'अस्मरं' मथितमन्मथं 'श्रुतोलङ्घने' सिद्धान्ताज्ञाऽतिक्रमे 'अनाशादं' आशा-मनोरथं ददाति-पूरयति आशादः, न आशादो-अनाशादस्तं श्रुताऽऽज्ञाऽतिक्रमकारिणः पुंसो नानुमन्तारमित्यर्थः। 'सज्ज्ञानधुमणि' सज्ज्ञानेन-केवलज्ञानेन लोकालोकावभासकत्वाद् भास्वन्तं 'जिन' तीर्थकरं इत्यादि। अतः यह स्पष्टतया प्रतिपादित हो जाता है कि, यह केवल ' संस्करण' ही है, मौलिक टीका नहीं। पूज्य उपाध्यायपदालंकृत मुनि-श्रीसुखसागरजी म.ने प्रस्तुत उपोद्घात लिखने का जो मुझे अवसर दिया है एतदर्थ मैं आपका कृतज्ञ हूँ। अहमदावाद लूणसावाडा जैन उपाश्रय १९-९-५२। पूज्य श्रीजिनमणिसागरसूरीश्वरान्तवासि शा. वि. उपाध्याय विनयसागर 'साहित्याचार्य, जैन दर्शनशास्त्री, साहित्यरत्न [ संस्कृत, हिन्दी] काव्यतीर्थ । For Private And Personal Use Only
SR No.020632
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshraj Upadhyay
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1953
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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