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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ 'संविग्ना' इति-जो मोक्ष के अभिलाषी हैं, सर्वदा लोगों को धर्मोपदेश देते रहते हैं, आगम के रहस्य को जानते हैं, द्रव्य क्षेत्र काल और भाव को देखकर किया करते हैं, शुद्ध मार्ग-अर्थात् जिनमार्ग को प्रकट करने में सर्वदा सावधान रहते हैं, तथा जिन्होंने मिथ्याप्रवादों को दूर करदिये हैं, एवं जो नियम-अभिग्रह, उपशम, दम-इन्द्रियविजय, औचित्य -योग्यता, गाम्भीर्य, धैर्य, स्थैर्य, औदार्य, आर्यचर्यासत्पुरुषोचित प्रवृत्ति, विनय-अभ्युत्थानादि, न्याय, दया, धर्मक्रिया, इन में आलस्याभाव-उद्यतपना और सरलता आदि गुणों से पवित्र हैं, एसे जो जिनशासन के सत्साधु हैं वे तो सर्वदा वन्दनीय हैं ॥ ३७॥ ___अब ग्रंथकार जिन भगवान को वन्दन करते हुए चक्रस्थापनासे स्वनामर्भित काव्य कहते हैं 'विभ्राजिष्णु०' इति-अपने अतिशयों से शोभायमान, अहङ्कार एवं कामसे सर्वदा रहित, सिद्धान्त की आज्ञा के उल्लङ्घन का निषेध करनेवाले, केवलज्ञानद्वारा लोकालोक के प्रकाशक होने से सूर्यसमान, श्रेष्ठ शरीर की कान्तिरूप चन्द्रिका के द्वारा चन्द्रमा के समान शीतल कान्तिवाले, असुर नर और इन्द्र से प्रशंसित, पापको नष्ट करनेवाले, दम्भ-( कपट-माया ) के लिये शत्रुसमान, विद्वानों को अपनी सुन्दर वाणीद्वारा स्याद्वाद के आनन्दसे आनन्दित करनेवाले, ऐसे जो जिन भगवान हैं उनको मैं वन्दन करता हूँ, यह काव्य चक्रवन्ध' काव्य है । ग्रन्थकारने इसमें "जिनवल्लभेन गणिनेदं चक्रे" (जिनवल्लभमणिने इस को बनाया है। इस वाक्य को अपनी काव्यरचना चातुरी के प्रभावसे काव्यान्तर्गर्भित कर दिया है ॥ ३८ ॥ ___ 'जिनपति.'-इति-विषयलोलुप, साधुवेषधारी और भस्मग्रहरूप, म्लेच्छ. राज के सैन्यसमान जो ये चैत्यवासी लोग है, इन चैत्यवासियों से इस पश्चम काल (आरा) के कारण जिनेन्द्र का मतरूप दुर्ग(किल्ला) आक्रान्त हो गया है अर्थात् भस्मक ग्रह के सैन्यरूप इन चैत्यवासियोंने जिनेन्द्र मतरूप दुगे पर आक्रमण कर लिया है, इसी लिये इस समय ये लोग अपने वशवर्ती श्रावकों के लिये हमको छोडकर "अन्यत्र कहीं नहीं जाना" इस प्रकारकी श्रृङ्खला समान अपने गच्छ की मर्यादा को स्वार्थसिद्धि अर्थात् अपना पेट भरने के लिये विस्तारित किये हुए है ।। ३९ ।। _ 'सम्प्रत्य.'-इति-इस समय-इस पञ्चम आरा में हीनाचारी चैत्यवासियों के कुसङ्घ का शरीर अप्रतिम अर्थात् अनुपम बलशाली हो रहा है, भस्मग्रहरूप म्लेच्छ For Private And Personal Use Only
SR No.020632
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshraj Upadhyay
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1953
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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