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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है। इस लिये साधुओं को गद्दी पर कभी भी नहीं बैठना चाहिये । इसी प्रकार मसूरक सिंहासन-तकियेदार आसन-आदि पर भी नहीं बैठना चाहिये ॥ ११ ॥ (८) सावद्याचरित विषयक आठमा द्वार कहते हैं गृही. गडरिया प्रवाह में पडे हुए इन चैत्यवासियोंने इन आगे कही जानेवाली अयुक्त बातें कैसी फैला रखी हैं ? । वे इस प्रकार कहते हैं-श्रावक अपने अपने नियत किये हुए गच्छ के ही साधुओं को मानें । जिनालय में साधुओं का अधिकार हो । गृहस्थ लोग साधुओं को अशन पान खादिम स्वादिमरूप चतुर्विध आहार शुद्धि अशुद्धि का विचार किये बिना ही दें तो कोई दोष नहीं है । तथा श्रावक लोग सुविहित साधुओं के समीप शीलादि व्रत न लें, इत्यादि ॥ १२ ॥ (९) श्रुतपथ अवज्ञा विषयक नौवाँ द्वार कहते हैं 'निर्वाहा.' इति-ऐसा गुरु कि-जिस के शील और वंश का कुछ भी पता नहीं है, जो गुण से हीन है, जिसने सिर्फ अपना पेट भरने के लिये ही प्रव्रज्या ली है, वह गुरु उदरम्भरी-पेटू, गुणहीन, अज्ञातशील वंशवाले लोगों को स्वार्थ के कारण मुंढते हैं, उन मुण्डितों की प्रसिद्ध गुण वंशवाले श्रावक भी गच्छरूपी महाग्रह से गृहीत होकर देवता से भी बढकर उनकी (चैत्यवासियो की) पूजा करते हैं, यह एक मोहनीय कर्मोदय का प्रभाव है ॥ १३ ॥ फिर भी 'दुष्प्रापा०' इति-गुरुकर्मी (भारेकर्मी) लोगों को प्रथम तो सद्धर्मबुद्धि होना ही कठिन है। यदि कथश्चित् सद्धर्मबुद्धि हुई भी तो शुभ गुरु का मिलना दुर्लभ है । यदि पूर्वपुण्य के प्रभाव से ऐसे गुरु भी मिल गये तो भी ये श्रावकलोग गच्छस्थिति के वशीभूत हो अपनी आत्मा का हित नहीं कर सकते । अरे ! जब ऐसी स्थिति है तब हम अपनी मानसिक वेदना किस के आगे प्रगट करें ? किस की शरण में जायें ? किस की आराधना करें ? अरे ! कुछ भी नहीं सूझता कि क्या करें ? क्या न करें ? ॥ १४ ॥ फिर भी 'क्षुत्क्षामः' इति-भूख के मारे जिसका जी जा रहा था ऐसा कोई दरिद्र के बालकने वैराग्य के न रहते हुए भी किसी जिनालय में प्रव्रज्या लेली। फिर कालक्रम से उसने किसी पुरुष को अपने पक्ष में छल-प्रपञ्च के द्वारा कर लिया। फिर वह आचार्य बन बैठा । यह अत्यन्त आचर्य है कि-ऐसे साधु को आचार्यपद्वी मिल For Private And Personal Use Only
SR No.020632
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshraj Upadhyay
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1953
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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