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संघपति रूपजी-वंश-प्रशस्ति
होने के साथ-साथ गच्छ-सम्प्रदाय के कदाग्रहों से मुक्त, उदारमना एवं विशुद्ध भारती के उपासक थे। इनकी वैदुष्य एव वैशिष्ट्यपूर्ण अमर-कृति सहस्रदलकमलभित चित्र-काव्य 'अरजिनस्तवः' स्वोपज्ञटोकायुक्त है। अरजिनस्तव की भूमिका में मैंने कवि की गुरु-परम्परा, कवि का परिचय, कवि द्वारा निर्मित साहित्य एवं कवि की विशाल हृदयता आदि पर विस्तार से विचार किया है।
श्रीवल्लभोपाध्याय द्वारा निर्मित निम्नांकित साहित्य अभी तक प्राप्त हुअा है
१. विजयदेवमाहात्म्य-महाकाव्य', रचना-समय अनुमानत: १६८७ २. अरजिनस्तव (सहस्रदलकमलगभितचित्रकाव्य) स्वोपज्ञटीका-सहित'
- रचना-समय १६५५ और १६७० का मध्य ३. विद्वत्प्रबोध' रचना-समय संभवत. १६५५ और १६६० के
पश्चात, रचना-स्थान बलभद्रपुर (बालोतरा) ४. संघपति रूपजी-वंश-प्रशस्ति-काव्य ५. चतुर्दशस्वरस्थापनवादस्थल' ६. उपकेशशब्द-व्युत्पत्ति र० सं० १६५५ विक्रमनगर (बीकानेर) ७. मातृ काश्लोकमाला' ८. शिलोञ्छनाममाला-टोका र० सं० १६५४ नागपुर (नागोर) ६. शेषसंग्रह-दीपिका'-टीका र० स० १६५४ बीकानेर १०. अभिधानचिन्तामणिनाममाला-'सारोद्धार'-टोका
__र० सं० १६६७ जोधपुर
१. जैन साहित्य संशोधक समिति द्वारा प्रकाशित । २. मेरे द्वारा सम्पादित एवं सुमति सदन कोटा से प्रकाशित । ३. श्रीजिनदत्त सूरि ज्ञानभण्डार सूरत से 'महावीर-स्तोत्र' में तथा राजस्थान प्राच्यविद्या___ प्रतिष्ठान, जोधपुर से 'एकाक्षरनामकोष-संग्रह में प्रकाशित । ४. प्रेसकॉपी मेरे संग्रह में है। ५. मुनि पुण्यविजयजी संग्रह प्रमदाबाद भाग २, ग्रंथांक ४५७२ पर प्राप्त है। ६. ७. बीकानेर बृहद्ज्ञान भण्डार में प्राप्त है। ८. राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में ग्रन्थांक ४३०५, ४३२३, १४१३६ और
मोर १७१६७ पर चार प्रतियाँ प्राप्त हैं।
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