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श्रेणिकका समवशरण प्रवेश ।
इन पाप और मोह रहित शान्त स्वरूप, परमयोगी श्रीवर्धमान भगवान्की शरण लेकर वैराग्यभाव धारण कर और मद रहित हो अपने अपने स्वाभाविक वैरको छोड़ रहे हैं।
इस प्रकार विचार कर वनपाल बिना ऋतुके फले कुछ फलोंको लेकर महामंडलेश्वर राजाओंके साथ बैठे हुए श्रेणिक महाराजके पास पहुँचा और उन फलोंको उनके हाथमें भेंट रखकर बोला-राजराजेश्वर, आपके पुण्यप्रतापसे विपुलाचल पर्वत पर श्रीवर्धमान भगवान्का समवसरण आया है । यह सुनकर श्रेणिक सिंहासनसे उठे और जिस दिशामें समवसरण था उस दिशामें सात पाँव चल कर उन्होंने आठों अंगोंसे भगवानको नमस्कार किया । और इस शुभ समाचार लानेवाले वनपाल पर बहुत खुश होकर उन्होंने उसे बड़े प्रेमसे अपने शरीर परके सब वस्त्र और आभूषण दे दिये । वनपाल बड़ा प्रसन्न हुआ और बोला-राजाका, देवका, गुरुका और विशेष कर ज्योतिषीका रीते हाथों दर्शन नहीं करना चाहिए, क्योंकि फलसे ही फलकी प्राप्ति होती है। भावार्थ-मैंने फल देकर राजाका दर्शन किया, इसलिए मुझे फलकी प्राप्ति हुई।
इसके बाद ही नगरमें आनन्द भेरी दिलवा कर श्रेणिक अपने परिवार तथा नगरके और और लोगोंको साथ लिए बड़े उछाइसे समवसरणमें गये । वहाँ उन्होंने हाथ जोड़कर भगवान्की पूजा तथा स्तुति की कि हे देव, आपके चरणकम
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