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सम्यक्त्व-कौमुदी
तसी स्त्रियोंको साथ लिये, शरीरमें हाड़के गहने पहिने, एक हाथमें त्रिशूल और एकमें डमरु लिये, पाँवोंमें नूपुर पहरे, महा भयंकर रूप धारण किये, एक कापालिक भिक्षाके लिए बन्धुश्रीके घर आया। उसे देखकर बन्धुश्री मनने विचारने लगीमैंने बहुतसे कापालिक देखे, पर इसके जैसा चमत्कारी तो आजतक कोई देखनेमें न आया । जरूर मेरा काम इससे सिद्ध होगा। ऐसा निश्चय कर उसने बड़े प्रेमसे अच्छे अच्छे पकवान उसे भीखमें दिये । ग्रन्थकार कहते हैं-मनुष्य स्वार्थके वश दूसरोंकी सेवा करता है, पर वास्तवमें उसका सच्चा प्रेम किसीसे नहीं होता । गायमें जब दूध नहीं रहता तब उसका बछड़ा भी उसे छोड़ देता है । अस्तु, बन्धुश्री उस कापालिकको हर रोज उसी तरह भीख देने लगी। कापालिकने बन्धुश्रीकी भक्ति देखकर मनमें विचारा-यह मुझे मेरी माताके समान खिलाती-पिलाती है। मुझे जरूर इसका कुछ न कुछ उपकार करना चाहिए । संसारमें उत्पन्न करनेवाले, विवाह करनेवाले, विद्या पढ़ानेवाले, अन्न देनेवाले तथा भयसे रक्षा करनेवाले ये पाँचों माता पिताके समान हैं। इस प्रकार विचार कर एक दिन बन्धुश्रीसे उस कापालिकने कहामाता, मुझे बहुतसी विद्याएँ सिद्ध हैं । अगर तुम्हारा कोई कार्य हो तो मुझसे कहिए । यह सुनकर बन्धुश्रीने रोते हुए अपना सारा हाल उससे कह कर अन्तमें कहा-जैसे बने वैसे तुम्हें जिनदत्ताको मार डालना चाहिए, जिससे
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