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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्यक्त्वकौमुदी - बुला कर अपने दिलकी सब बातें उन दोनों से कहीं । अन्तमें निश्चय किया कि यह यमदंड दुष्टात्मा उसे किसी उपायसे मार डालना चाहिए । है और मंत्री और पुरोहितने भी राजाकी हाँ में हाँ मिलाकर राजाके प्रस्तावका समर्थन किया। आचार्य कहते हैं यह ठीक ही है । क्योंकि जैसी होनहार होती हैं वैसी ही बुद्धि हो जाती है, उद्यम भी वैसे ही होने लगते हैं और सहायक भी वैसे ही मिल जाते हैं । निदान राजा मंत्री और पुरोहित इन तीनोंने मिलकर यमदंडको फँसानेका उपाय ढूँढ़ निकाला । एक दिन तीनोंने राज्य के खजानेको खोद कर और उसकी सब चीजें वहाँसे उठा कर किसी दूसरे गुप्त स्थानमें रखकर वे जल्दीसे अपने अपने स्थानको चले गये । लेकिन जाते समय राजा अपनी दोनों खड़ाऊँ, मंत्री अपनी अँगूठी, तथा पुरोहित महाराज अपने जनेऊ को वहीं पर भूलसे छोड़ गये । सबेरा होते ही राजाने खजाने में चोरी हो जानेका शोर मचाया । इधर यमदंडको बुलानेके लिए उसने नौकरोंको भेजा । यमदंडने उन्हें अपने पकड़नेको आये देख जान लिया कि आज मेरी मृत्यु आ पहुँची । क्योंकि राजाका मुझ पर पहलेहीसे डाह हैं । आज जो न हो जाय सो थोड़ा है । क्योंकि राजाके क्रोधकी कुछ सीमा नहीं । उससे कवि कवि नहीं रहता, होशियार गँवार हो जाता है, चतुर मूर्ख For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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