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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नागश्रीकी कथा | ९५ पोंका स्वभाव ही होता है। मुंडिकाने जो व्रतोंका निर्दोष पालना किया, उसके प्रभावसे उसका सब रोग चला गया । तब आर्यिका उससे कहा- पुत्री, जो निर्दोष व्रतोंका पालन करते हैं वे स्वर्गादिकके भी जब पात्र होते हैं तब और साधारण रोगादिकके दूर होनेकी तो बात ही कौनसी हैं । मुंडिका जब ब्याह योग्य हुई तब जितारिने उसका स्वयंवर रचा । देश-देशान्तरोंके राजकुमार मुंडिकाको दिखाये गये, पर राजकुमारीको उनमें कोई पसन्द न आया उसने किसीको नहीं बरा । वह अपने स्थानको चली गई । तुंड देशमें चक्रकोट नामका नगर है । उसमें भगदत्तनामका राजा था । यह बड़ा दानी था, रूप-लावण्यादि गुणोंसे युक्त था तथा बड़ा वैभवशाली था; पर था छोटी जातिका । इसकी रानीका नाम लक्ष्मीमती था । राजमंत्री सुबुद्धि था । गुणवती मंत्रीकी स्त्री थी । एक वार भगदत्तने जितारिसे राजकुमारी मुंडिकाके लिए मँगनी की । जितारिने उत्तर में कहा - भगदत्त, मैंने अपनी प्रिय कुमारीको अच्छे अच्छे राजकुमारोंके साथ तो व्याहा नहीं और तू ओछी जातिमें पैदा हुआ, भला तब मैं तुझे अपनी पुत्री को कैसे दूँगा ? भगदत्त बोला- राजन, असलमें तो मनुष्यों में गुण होने चाहिएँ । जाति कैसी ही हो, उससे कुछ लाभ नहीं । जितारिने तब कहा - अच्छा तुम्हारी यही इच्छा है, तो मैं युद्धमें तुम्हें सब कुछ मनोवांछित दूँगा । जिता For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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