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वळा
२५० २ख० १३-१६ ।
८८ त्वा रात्रि! यजामहे ॥ प्रजामा नः कुरु रायसो षेण मसज ॥ १५ ॥ अन्वियन्नो अनुमति यज्ञ देवेष मन्यताम् । अग्निश्च हव्यवाहनः स नो ऽदाहा शः मयः ॥ १६ ॥
हे 'राषि' ! अष्टकाया रजने ! 'संवत्सरस्य' 'प्रतिमा' परिमापयिौं 'यां त्वा' त्वां यजामहे' वयं, सा त्वं 'न' अस्माकं 'प्रजा' 'अजा ' जरा-शून्यां 'कुरु' ; किञ्च अस्मान् 'राय पोषेण धनस्य सम्बन्धि-पोषणेन 'सं सज' अतिसर्जय ॥ १५ ॥ ___ इयं' 'अनुमतिः' देवी ‘देवेषु' इन्द्रादिषु यज्ञम्' इदं 'अनुमन्यताम् वोधयताम्'। 'हव्यवासयामांगानकारी 'च' 'सः' अयम् 'अग्निः' 'दाशन हवितवते यजमालय
नः' मधं 'मयः' सुखम् 'प्रदात दातु नाम তারা নিরীক্ষণ করিতেছেন, সেই অষ্টকরুণত্রি (উত্তরাষ্টকা) অত্যধিক দুগ্ধবতী গাের ন্যায়-উত্তরােত্তর বর্ষে ইষ্ট-ফল-প্রস বিনী হউক । ১৪। হে অষ্টকা-রাত্রি! তুমি সংবৎসরের পরিমাণকৰ্ত্তী, তােমাকে আমরা পূজা করিতেছি, তুমি আমাদিগের অপত্যাদিকে জরা শূন্য কর, এবং আমাদিগকে ধনের वकरी मरकापत लालन कत ॥ 6 ||
এই অনুমতি দেবী ইন্দ্রাদি দেবগণেতে যজ্ঞ বােধন কারন, এবং হব্য-সমুদয়ের বহনকারী এই অগ্নি দেবতা, দত্ত হবি আমাদিগকে সুখ প্রদান করুন। ১৬। ॥ इति मामवेदीये मन्त्र-त्राह्मणे-द्वितीयापाठकस्य
द्वितीय खगडः समाप्तः ॥ १६---अग्निदेवता। अनुष्ट प्छन्दः । हीमे विनियोगः । सौविष्ट कृत मष्टम्या जुहुयात्, गो. ४,१ __ *म-दिह-मड रारक रवि यश कक 1 .
१२ म
पनायव
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