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२प्र० १ख० ११-१५ ।।
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अस्मभ्य मोषधीः करणोतु विश्वचर्षणि स्वाहा ।। १५।। एतमुत्य मधुना संयुतं यवए सरस्वत्या अधिवनावच'वेद' जानाति, किञ्च 'अस्मभ्य' 'शिवाः' कन्याणकरीः, 'श्रीषधीः' धान्य विशेषान्, स: 'विश्वचर्षणिः' विश्वस्य जगत: 'चर्षणिः' स्रष्टा अग्निः ‘कृणोतु' ददातु ॥ १५ ॥
हे इन्द्र! 'एतं' ('उ' पादपूरणे) 'त्य' तं, 'मधुना संयुतं यवं' 'सरखत्या' वाचा. 'वना' सम्भजनीयं, 'अध्यवचर्कधि' अतिशयेन अधिकारं कुरु, गृहाणेति यावत्,-इदानों यवान्न ग्रहणे इन्द्रस्य औचित्य दर्शयति,-'इन्द्रः' 'शतक्रतुः' शतसंख्याक-यज्ञानुष्ठायौ सवेव 'सोर पतिः' यवादुत्पादकस्य 'सौरस्य मेघस्य' 'पतिः' अधिपतिः-संरक्षण कर्ता, 'आसौत्' अभूत् एवं यवाटुात्पत्ति-सहकारिणोपि 'सुदानवः' शोभन
জাঠর (জঠরে উৎপন্ন) অগ্নি প্রথমে এই হবি ভক্ষণ করুন, যেহেতু তিনি যেরূপ এই হবি অবগত আছেন আমি তদ্রুপ জানি না, কিঞ্চ সেই বিশ্ব সংসারের স্রষ্টা অগ্নি আমাদিগকে কল্যাণ-জনক ধান্যাদি প্রদান করুন ॥ ১৫।
| হে ইন্দ্র! বাক্য দ্বারা সম্যকরূপে ভজনীয়, মধু-সম্মিশ্রিত, এই যব, ভালরূপে অধিকার কর, শতবার যজ্ঞানুষ্ঠান করিয়া শতক্রতু নাম ধারী ইন্দ্র দেবতা বাদি অন্ন সকলের উৎপাদক মেঘের অধিপতি হইয়াছেন, এবং যবাদি অন্নের
१५ ---जाठरी नि देवता। अनुष्ट पछन्दः । श्यामाकचर-प्राशन विनियोगः । “अनि: प्राशात प्रथम मिति श्यामाकानाम्' गो० ३, ८ ।
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