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मन्त्र- प्राह्मणम् |
दङ्गात् सत्यवति हृदया दविजायते ॥ प्राणं ते प्राणेन सन्दधामि जोव मे याव दाय षम् ।। १६ । अङ्गादङ्गात् सम्भवसि हृदया दविजायसे ॥ वेदो वै पुत्र
हे पुत्र ! त्वं 'मे' मम 'अङ्गात् भङ्गात् ' मदीय- समस्तावयवात् संश्रवसि' संश्रुतो भूतः ; किञ्च 'हृदयात्' मदीयात् 'अधिजायसे' उत्पन्न: ; अतः 'ते' तव 'प्राणं' 'प्राणेन' मदीयेन श्रात्मप्राणविसर्जनेनापि - ' संदधामि' पोषयामि पुत्र ! 'यावदायुषं यावत् आयुषः अवधिः श्रुत्युक्तः तावत्, शतवर्ष' 'जीव' ॥ १६ ॥
हे 'पुत्र !' यः त्व ं 'अङ्गात् अङ्गात्' मदीयात् प्रतावयवात् 'सम्भवसि समुत्पत्रोऽसि, 'हृदयात्' मदीयात् 'अधिजायसे' अतः त्व' 'वै' निश्चयं 'वेद' वेदपाठी 'नाम' प्रसिद्ध: 'असि भवसि लोके ( मम वैदिकत्व-प्रसिद्धेरिति भावः) ; 'सः' त' 'शरदः शतं' शतसंख्याकं शरत् कालं 'जीव' ॥ १७ ॥ কাল পর্য্যন্ত ইহারা তোমাকে পরিবর্দ্ধন করুন এবং তুমি এই নামে প্রসিদ্ধ হও ৷৷ ১৫
হে পুত্র! তুমি আমার প্রত্যেক অঙ্গ হইতে সংশ্ৰুত হইয়াছ অর্থাৎ আমার হস্ত হইতে তোমার হস্ত হইয়াছে, আমার পাদ হইতে পাদ, মুখ হইতে মুখ, নাসিকা হইতে নাসিকা ইত্যাদি ক্রমে আমার অঙ্গ সমস্ত হইতেই ত্বদীয় সমস্ত অঙ্গ হইয়াছে। তুমি আমার আত্মা স্বরূপ হৃদয়ের ধন। অতএব আমার স্বীয় প্রাণ বিসর্জ্জনেও ত্বদীয় প্রাণ পোষণীয়—পুত্র! যাবৎকাল মনুষ্যের আয়ু হইতে পারে (অর্থাৎ শত বর্ষ) তাবৎ জীবিত হও ॥ ১৬
१६ – अम्य, परस्य, तत्परस्य च - प्रजापतिः देवता । अनुष्टुप्कन्दः । मूई प्राणने विनियोगः ।
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