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मन्व-ब्राह्मणम्।
अथ चतुर्थः खण्डः। अग्ने प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्म ण स्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्याः पापी लक्ष्मीस्तामस्या अपहि॥१॥ वायो प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चि त्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि यास्याः पतिघ्नी तनस्तामस्या अपजहि ॥ २॥ चन्द्र प्रायश्चित्ते
'प्रायश्चित्ते' प्रायश्चित्त कार्य आराध्यमान ! 'अग्न! 'त्व' देवानाम् अस्मदादीनां ‘प्रायश्चितिः' दोषस्य उपगमिता 'असि' भवसि, अत: 'नाथकामः' नाथः अधिनायकः मे भयादिति कामनावान् अहं ब्राह्मणः' 'त्वाम्' 'उपधावामि' अभ्यर्चामि । त्वं हि अस्याः' 'पापी लक्ष्मी' अशुभसम्बन्धिनी शोभा 'या' स्यात्, 'अस्याः' वध्वः ताम्' दुष्ट शोभाम् अपजहि' अपगतां कुरु ॥ १ _ 'प्रायश्चित्त कार्य आराध्य मान ! 'वायो ! (त्व' 'देवानाम् अस्मदादीनां प्रायश्चित्तिः' दोषस्य उपशमिता असि' भवसि, अतः 'नाथकाम': 'अहं 'ब्राह्मण:' 'त्वा" उपधावामि'; 'अस्यां' पतिघ्नी
হে প্রায়শ্চিত্ত কাৰ্য্যে আরাধ্যমান অগ্নে! তুমি দেদীপ্যমান আমাদিগের দোষের উপশমকারী হইতেছ অতএব নাথকাম অামি (অর্থাৎ আমার কেহ নাথ [মুরুব্বী হউক এরূপ অভিলাষী) ব্রাহ্মণ, তােমাকে অর্চনা করিতেছি, তুমি এই বধুর অমঙ্গল শোভা যাহা থাকে তাহা দূর করিয়া দাও । ১।
হে প্রায়শ্চিত্ত কাৰ্য্যে আরাধ্যমান বায়াে ! তুমি দেদীপ্যমান আমাদের দোষের উপশমকারী হইতেছ অতএব নাথকাম আমি ব্রাহ্মণ, তােমাকে অৰ্চনা করিতেছি, তুমি এই বধূর শরীরে পতিবিয়ােগ-কারণ দোষ যাহা থাকে, তাহা দুর করিয়া দাও ॥২
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१ -- अग्नान्द्रय इमै पञ्च मन्वा निगदाः ( यजुर्विशेषः ) । अग्नग्रादि दैवताका: ।
चतुर्थीति प्रमित होम कर्मणि विनियुक्ताः ।।
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