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२प्र० ४ख. ८-१०।
ऋत सत्ये प्रतिष्ठित मत भविष्यता सह ॥ आकाश उपन्निरजतु मह्यमन्य मथो थिय॥१०॥ अभि भागोसि सर्वस्मिर स्तटुसब त्वयिश्रित ॥ तेन सर्वेण ___ 'भूत" उत्पन्न वस्तु 'भविश्थता' उत्पत्स्यमान-वस्तु मा 'सह' यत्किञ्चित् ऋतं, सत्य कार्यजातं तत् 'सत्ये' सत्यस्वरूपे कारणात्मनि तुयि 'प्रतिष्ठितं' विद्यते, 'आकाशः' आकाशवत् सर्व व्यापकः स आत्मा 'मद्यम्' 'अन्न' 'निरज्जत' ददासु 'अयो' अपिच 'श्रियं' ऐवयं शोभा 'निरज्जतु' ददातु ॥ १० ॥ ___ हे आमन् ! त 'सर्वस्मिन्' प्राणिमात्र 'अभि' सब तः 'भागः' अंशात्मकः 'असि' पञ्चभूतात्मके देहे जौवरूपस्य तव अंशोविद्यत एव नान्यथा चैतन्य मुपपद्यते किञ्च तटु' तच्च 'सर्च' पाण्य प्राणि साधारणं त्वयि' परमात्म स्वरूपे 'श्रितम्' ভূতকালে উৎপন্ন বস্তু ভবিষ্যৎকালে উৎপস্যমান বস্তুর সাহিত্যে যে কিছু সত্য কাৰ্য্য-সমষ্টি হইয়াছে, ও হইতেছে, সেই সত্যাত্মক কারণ রূপি তােমাতে আকাশের ন্যায় সৰ্বব্যাপক সেই প্রসিদ্ধ আত্মা প্রতিষ্ঠিত আছে ; সেই আত্মা আমাকে তন্নপ্রদান করুন; এবং ঐশ্বৰ্য্য ও শােভা প্রদান করুন্ ॥১॥
হে আত্ম! তুমি প্রাণি মাত্রেতেই সৰ্ব্বততভাবে অংশাত্মক হইতেছ ; (পঞ্চভূতাত্মক শরীরে জীবরূপি তােমার অংশ অবশ্যই অাছে, অন্যথা চৈতন্যেরই উপপত্তি হইবে না) এবং সেই সকল প্রাণি অপ্রাণি সাধারণ ভূতবর্গ তােমাতেই १० - पात्मा, आदित्यो वा देवता । अनुष्ट छन्दः । अक्ष तण्डुल होमे विनियोगः । “हितीययादित्य परिविष्यमाण क्षतण्डु लान् जुहुयात्" गों ४,५ ।
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