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संयोजक, सम्पादक की ओर से
भारत वर्ष में जब भी शांति का साम्राज्य चल रहा होता है। तब १९११ वर्ष पूर्व उद्भव हुए दिगम्बर समाज द्वारा विद्वेष की अग्नि प्रज्ज्वलित होती है। दिगम्बर धर्म के संस्थापक श्वेताम्बर मुनि श्री शिवभूतिजी ने श्री वीर प्रभु के निर्वाण के ६०९ वर्ष बाद स्थापित किया है ऐसा श्री उत्तराध्ययन सूत्र जो कि संपूर्ण जैन श्वेताम्बर समाज के मान्य हैं। श्री महावीर प्रभु की अंतिम देशना के रूप में मान्य आगम ग्रंथ है।
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श्री श्वेताम्बर जैन समाज का आज नहीं लाखों वर्ष पूर्व वर्तमान चौवीसी के द्वितीय तीर्थकर परमात्मा श्री अजीतनाथजी बिहार प्रदेश अंतर्गत श्री सम्मेतशिखरजी की पवित्र भूमि पर विराजमान समाधि युक्त सिद्धवर टोंक पर सिंहसैनादि गणधर ९५ व १००० मुनि परिवार संह चैत्र सुदि ५ को मोक्ष पधारे। तब से लेकर आज तक वर्तमान चौवीसी के श्री पार्श्वनाथ भगवान मोक्ष पधारे यानि वर्तमान चौबीसी के २० तीर्थकर १२८० गणधर मोक्ष पधारे। वर्तमान चौबीसी के प्रथम तीर्थकर आदिनाथजी अष्टापद पर्वत पर श्री वासुपूज्यस्वामी चंपानगरी श्री नेमीनाथ भगवान गिरनार पर्वत पर एवं अंतिम तीर्थकर श्री महावीर स्वामीजी पावापुरी में इस प्रकार चार तीर्थकर परमात्मा अन्य भिन्न-भिन्न जगह पर बीस तीर्थंकर एक ही स्थल सम्मैत शिखर पर्वत पर व उसकी परिधि में १६,००० एकड़ भूमि का घेरा है। वह सभी निर्वाण भूमि होने से परम पवित्र भूमि है। तीर्थ क्षेत्रों की स्पर्शना, दर्शन, वंदन व पूजन करने जाने की भावना होती है। क्योंकि पवित्र भूमि के स्पर्श से ही विचार शुद्ध व भावना निर्मल विचारों की होती है। तीर्थ क्षेत्र में मनुष्य को जाने पर जीवन के लिये जो आवश्यक सुविधाओं की जरूरत होती है जैसे शुद्ध सात्विक भोजन, पूजन की सामग्री रहने की सुविधा व स्नानादि की व्यवस्था मानव भौतिक सुखों
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