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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir EX रयणवाल कहा एक बार रत्नवती गर्भवती हुई। उसने एक पुत्र को जन्म दिया। वह सुखपूर्वक बढ़ने लगा। उसे विद्या अध्ययन कराया, यथा समय उसका विवाह किया गया। वह विनीत, विवेकी और सभी कामों में कुशल था । वह गृहस्थाश्रम की धुरा को वहन करने में समर्थ हुआ । इधर चार ज्ञान के धनी महातपस्वी आचार्य अमितगति वहां आए । आचार्य के आगमन से नगरी बहुत संतुष्ट हुई । आचार्य को वंदन करने सेठ, गाथापति सेनापति, राजा आदि अनेक व्यक्ति गए। रत्नवती को साथ ले रत्नपाल भी दर्शन करने के लिए गया। आचार्य ने धर्म-देशना दी। मनुष्य जन्म-प्राप्ति की दुर्लभता बताई। उन्होंने कहा मनुष्य भव चार गतिमय संसार दुर्ग का द्वार है, जो इसको यों ही गंवा देते हैं वे नरक-निगोद आदि में पड कर, संसार चक्रवाल में भ्रमण कर, चौरासी लाख जीव-योनियों का पार कैसे पा सकते हैं ? मोहनीय कर्म की स्थिति सत्तर कोटि-कोटि सागर की है। उससे मूढ़ हुए प्राणी. प्रत्यक्ष स्वरूप को भी नहीं पहचान पाते । वे मद्यपान करने वाले व्यक्ति की तरह विवेक से विकल होकर जहां तहां भ्रमण करते हैं, घूमते हैं, गिर पड़ते हैं, हँसते हैं, रोते हैं, प्रलाप करते हैं, गाते हैं, और बाबार म्लान होते हैं । सुख को प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्ति भी सुख कैसे पा सकते हैं, जब तक वे सुख की गवेषणा और मार्गणा पर-वस्तुओं में करते रहेंगे । आत्मा का स्वरूप है अनन्त सुख । पर वस्तुओं का संयोग ही दुःख, भ्रांति या भ्रमण का कारण है। इसलिए सबसे पहले यथार्थ ज्ञान करना चाहिए । ज्ञान रहित क्रिया अन्धे व्यक्ति के बाण की तरह निरर्थक है, वह अपने लक्ष्य को भेदने में सफल नहीं होती । ओह ! जो मुनि आत्म-वाटिका में रमण करते हैं वे किस प्रकार के आनन्द का अनुभव करते हैं ? अनुकूल और प्रतिकूल सूख और दुःख में समता का भाव रखते हुए वीतराग व्यक्ति कहीं भी खिन्न, क्लिष्ट, परितप्त, विमनस्क और दुर्मना नहीं होते । ओर ! ओह ! मुनियों के लिए सभी जगह आनन्द का समुद्र उद्वेलित रहता है । चारों ओर शान्ति की लहर फैली रहती है । भव्यो ! आत्मीय सुख के क्षण का एकबार अनुभव करो। जो एकबार इस स्वाद को पा लेता है, वह कभी इसे नहीं छोड़ सकता । यह मार्ग अनुभव-गम्य है । साक्षान् अमृतपान की तरह आचार्य के इन मधुर वचनों को सुनकर सारी परिषद् प्रफुल्लित हुई और उसका मानस अत्यन्त उद्बुद्ध हुआ। धर्मदेशना के पश्चात् रत्नपाल ने अपने पूर्व जन्म का वृत्तान्त पूछते हुए आचार्य श्री से For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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