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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छठा उच्छ्वास ७३ दीर्घ निश्वास छोड़ती हुई पति को एक ओर लेजाकर टूटे-फूटे शब्दों में बोली- 'आर्य पुत्र ! आप शीघ्र ही घर चलें। अपने सिर पर विपत्ति की घटा नाच रही है दूसरों को ज्ञात न हो, गुप्त बात है। यहाँ मैं उसे प्रकट नहीं कर सकती। ___ सेठ का धैर्य विचलित हो गया, वह तत्क्षण अपनी पत्नी के साथ चल पड़ा । अनेक संकल्प-विकल्पों को संजोता हुआ, वह दौड़कर घर पहुंचा । पत्नी ने घर के द्वार दृढ़ता से बंद कर डाले और राउल द्वारा कथित बात कहते हुए बोली--- 'पतिदेव ! चन्दन अपने पास विद्यमान था। राजा के द्वारा मांगे जाने पर भी आपने उसे क्यों नहीं दिया? ऐसे समय में तो वह चीज स्वयं देने योग्य थी । यह सच है कि अति लोभ का सर्वत्र वर्जन करना चाहिए। पत्नी के मुह से राउल द्वारा कथित सारी बात सुनकर वह सेठ अत्यन्त उत्रस्त हो गया। उसने सोचा - 'यदि प्रातःकाल होते ही राजपुरुष आकर घर की छानबीन करेंगे और प्रचुर चन्दन का खजाना देखेंगे तो मेरी क्या दुर्दशा होगी ? हाय ! अति लोभ ने सारा नाश कर डाला । मैंने व्यर्थ ही भद्र गरीब जिनदत्त को धोखा दिया । व्यर्थ में संपादित धन व्यर्थ ही चला जाएगा और वह भी मेरी सारी संपत्ति के साथ । ओह ! समय थोड़ा है। मुझे अब क्या करना चाहिए ? ___अन्त में दोनों भयभीत पति-पत्नी ने रात में अपने हाथों से सारा बहमूल्य चन्दन लेकर घर के पीछे एकान्त स्थान में गहित वस्तु की तरह फेंक दिया। उसका मन प्रचण्ड भय से खण्डित हो चुका था। उसने चन्दन का एक भी टुकड़ा घर में नहीं रखा और भय से त्रस्त होकर उसने अतीत में उस चन्दन के बेचने से जो धन प्राप्त हुआ था, उसे भी वहीं फेंक दिया। जहां चन्दन पड़ा था, उस स्थान को गोबर से लीप दिया ताकि गोशीर्ष चन्दन की तनिक भी सुगन्ध न आए। पश्चात् धनदत्त पश्चिम रात्रि में, घर के द्वार बन्द कर अपनी पत्नी को साथ ले उद्विग्न होता हुआ अन्यत्र दौड़ गया। कपट कला की परिणति विचित्र होती है । इसलिए नीतिकारों ने यह ठीक ही कहा है कि 'माया भय है।' ___ सूर्योदय से पूर्व राउल वहां गुप्त रूप से आया। चारों ओर घूमते हुए उसने घर के पीछे फेंकी हुई चन्दन राशि को देखा और बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सोचा-'ओह ! मेरी माया सफल हुई। कांटे से कांटा निकल गया । पापी को उचित प्रतिफल मिला। उसने तत्काल सारा धन बटोकर छुपा लिया । For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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