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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छठा उच्छ्वास ६७ पुत्र की विरहाग्नि से तप्त माता के हृदय को पुत्र के कुशल क्षेम के समाचार रूपी जलधारा से शांत करते हुए राउल ने कहा - 'मन्मन ने रत्नपाल का पुत्र की तरह पालन किया और पढ़ाया। जब वह बारह वर्ष का हुआ तब अपने एक कर्जदार के मार्मिक शब्दों से आहत होता हुआ वह अपने वृत्तान्त से अवगत हुआ। एकटक देखती हुई र्मा ने कहा - बाद में, बादमें क्या हुआ ? राउल - जैसे सिंह के बच्चे की तरह वह अपने स्वरूप को जानकर तत्क्षण विदेश जाने के लिए तत्पर हो गया । मन्मन के बहुत अनुरोध करने पर भी वह नहीं रुका। अन्त में वह नौका को विक्रेय वस्तुओं से भरकर समुद्र यात्रा के लिए निकल पड़ा । ( मन ही मन में ) ओह ! उस दूध मुहे बच्चे ने ऐसा साहस किया ? भानुमती का शरीर रोमांचित हो उठा। वह बोली- 'अच्छा, ऐसा दुष्कर कार्य उसने किया? उसके आगे भी कोई समाचार है ? राउल - 'क्यों नहीं ? सुनो ! आज तक का वृत्तान्त | वह कालकूट नामक द्वीप में गया। पुष्पों के संयोग से राजा निरोग हो गया । माल के बिकने पर उसे अतुल लाभ हुआ । उसकी राजपुत्री रत्नवती से विवाह हुआ । आश्चर्य से भानुमती ने कहा - ' राउल क्या कह रहे हो ? क्या वह इतना भाग्यशाली है कि राजा का जमाई हो गया ?" राउल - हां मां, यह सत्य है । वह महान् भाग्यवान प्रगट हुआ है । क्या तुम यह जनश्रुति नहीं जानती कि पुरुष का भाग्य कौन जान सकता है। भानुमती की आंखें हर्ष से गीली हो गई । उसने पूछा- 'क्या वह वहीं रह रहा है या अपने नगर को लौट आया है ? राउल - 'मां क्या पूछ रही हो ? वह माता-पिता के बिना वहां कैसे रह सकता है ? वह वहां से शीघ्र ही लौट कर सकुशल अपने नगर में आ गया उसने अपना सारा ऋण चुका डाला और तत्काल मन्मन के घर से निकला और पूर्ण ठाट-बाट के साथ अपने घर आ गया । अब वह प्रतिपल माता-पिता के दर्शनों के लिए उत्सुक है ।' रोते-रोते भानुमती ने कहा- 'मैं ही पुत्र विरहिणी और अभागिनी भानुमती रत्नपाल की जननी हूँ । आज का दिन धन्य है कि मुझे प्रिय पुत्र के यथार्थ समाचार सुनने को मिले । योगीन्द्र ! मैंने पुत्र के वियोग में कौन-कौन For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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