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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छठा उच्छ्वास योगीजन बड़े या छोटे-सब पर समान दृष्टि वाले होते हैं । उनके मन में कहां जाना चाहिए, कहां नहीं, कहां रहना चाहिए, कहां नहीं इस प्रकार के विकल्प नहीं उठते अत: मैं इस बालमुनि को भिक्षा के लिए निमंत्रित करूं'-ऐसा सोचकर यह राउल के भोजन योग्य कुछ पदार्थ लेकर उसके पास गई और विनय से प्रणाम करती हुई बोली --- 'बालयोगीश्वर ! आपने बड़ी कृपा की। हम जैसे मन्दभाग्य आपके पवित्र दर्शनों से कृतकृत्य हुए हैं। यद्यपि आपका स्वागत करने योग्य कोई विशिष्ट वस्तु नहीं है, तो भी मुनियों के लिए भक्ति ही विशिष्ट वस्तु है'--यह सोचकर मैं कुछ रूखी-सूखी वस्तु लाई हूँ, आप कृपा कर उसे ग्रहण करें। मुने ! यदि हम पुरिमतालपुर में होते तो आपकी असाधारण भक्ति-शुश्रुषा करते । परन्तु क्या, अभी जो है' - इस प्रकार कहती हुई भानुमतो की आँखें डबडबा आई, और अपनी गीली आँखें पोंछती हुई मौन हो गई। प्रेम की पिंडलिका, वात्सल्य की पंक्ति, सरलता की प्रतिमूर्ति, कृपा की पात्र और प्रकृति से सौम्य सास भानुमती को राउल ने देखा । राउल ने उसे देखकर अनुभव किया कि वह पुत्र के वियोग से कृश होने पर भी कर्तव्य के पालन में पुष्ट, दारिद्रय रूपी दावानल से दग्ध होने पर भी भावना से दान देने में उत्सुक, स्वभाव से मधुर और मिष्ठ है। उसने सोचा-'ओह ! धन चला गया परन्तु दानशीलता नहीं गई, मानवता नष्ट नहीं हुई। धूल से मटमैला हो जाने पर भी क्या रत्न की महामूल्यवत्ता कम होती है ? भूमि पर गिरजाने पर क्या मेघ का पानी कडुवा हो जाता है ? पत्र, पुष्प फल से विहीन होकर भी क्या आम नीम हो जाता है ? निश्चित ही यह गुणरूपी रत्नों की खान है, इसलिए यहां रत्न उत्पन्न हुआ है । निश्चित ही अग्नि से तप कर सोना दीप्त होता है । घिसे जाने पर ही चन्दन की महक फूटती है।' इस प्रकार सोचता हुआ राउल पहले की तरह वीणा बजाता हुआ मौन हो गया। __प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा करते हुए भानुमती ने पूछा - 'आप जबाब क्यों नहीं दे रहे हैं ? आप इस भक्ति भरी भिक्षा को क्यों नहीं ले रहे हैं ? यह भिक्षा सुखी होने पर भी प्रेम से स्निग्ध है, निकृष्ट होने पर भी भक्ति विशिष्ट होने से मिष्ट है। माता जी ! भिक्षा अभी मुझे नहीं चाहिए। तुम्हारी असाधारण भक्ति को देखकर मुझे वह अवश्य ग्रहण करनी चाहिए, किन्तु प्रभु की भक्ति के रसपान से मेरा मन तृप्त है, थोड़ी भी भूख प्यास नहीं है । मुनियों के लिए For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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