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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रयणवाल कहा इसी बीच नौका सज्जित की गई और उसमें अपने देश में दुर्लभ किन्तु वहां सुलभ, वस्तुओं को खरीद कर रखा गया। प्रस्थान का दिन निश्चित किया । इसके मधुर व्यवहार से अनेक व्यक्ति इसके मित्र बन गए। सभी नागरिकों का यह प्रीतिपात्र बन गया । रत्नपाल के देश लौटने की बात सुनकर सभी व्यक्ति अपना-अपना सौहार्द दिखाने के लिए उसके पास आने लगे । अनेक बातों से उसकी प्रशंसा करते हुए 'फिर कब मिलना होगा' ऐसा कहते हुए अपनी मुखाकृतियों से खिन्नता सूचित कर रहे थे । 'वहां जाकर आप कभी-कभी हमें याद करते रहें यह बार-बार कह रहे थे । रत्नपाल भी सबका आभार स्वीकृत करता हुआ हाथ जोड़े बैठा रहा। वहां के सभी याचक और नौकरों को उचित दान देकर उसने सबको संतुष्ट किया 1 I रत्नपाल के लौटने का दिन भाया । इधर राउल के रूप में रत्नवती को प्रस्थान कराने के लिए तैयारी की गई। माता-पिता का हृदय उद्विग्न हो गया । परम प्रेम से पोषित पुत्री रत्नवती की आँखें बार-बार आँसुओं से भर आती थीं । उसने सोचा परिचित संसार को छोड़कर अपरिचित ससुरालय में जाना पड़ेगा | 'वहां का व्यवहार कटु होगा या मधुर' - इस प्रकार उसका मन अनेक संकल्पों में फँस गया । जन्म से जो व्यक्ति साथ में रहे हैं, उनका विरह उसके हृदय समुद्र को उद्वेलित कर रहा था । अपनी पुत्री को गोद में बिठाकर आंसुओं से उसको स्नान कराती हुई उसकी मां ने शिक्षा देते हुए कहा - "प्रिय बेटी ! तेरे विरह से आज हम सब दुःखी हैं। मानो कि कोई महामूल्यवान् वस्तु हमारे से दूर हो रही है । इससे हमारा चित्त खिन्न हो रहा है । यह स्पष्ट किवदन्ती है कि माता-पिता का क्या जोर चलता है ? कन्याएँ दूसरों के घर जाने वाली ही होती हैं ।' बेटी ! तू सुख पूर्वक जा ! तेरा सौभाग्य स्थिर हो । तुम दोनों का स्वास्थ्य सदा स्वस्थ रहे । तेरी सारी पीड़ाएँ क्षार समुद्र में विलीन हो जाएँ। बेटी ! नया प्रदेश है । वहाँ के सभी लोगों के स्वभाव अपरिचित हैं। वहां की कार्य-प्रणाली का भी हमें अनुभव नहीं है । वहां तुझे बहुत दक्षता से रहना है। मैं राजपुत्री हूँ,' इसलिए मैं कार्य कैसे करू" - ऐसा तुझे चिन्तन नहीं करना है। प्रियता केवल कुल और रूप से प्राप्त नहीं होती है, वह प्राप्त होती है कार्य करने से । दूसरे यदि तुझ पर निरर्थक ही क्रोध करें तो भी तुझे सहिष्णु रहना है । सहिष्णुता से ही कुलवधुओं की बहुत ही शोभा होती है । ससुर और सास की सविनय सेवा करना । तेरे लिए जैसे हम हैं, वैसे ही वे हैं । अपने पति For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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