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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चौथा उच्छ्वास होकर दुर्भाग्यवश मैं कालकूट द्वीप में आ पहुंचा । वंचना के जाल से अजान मैंने यह सोचा कि-'मेरे पास एक महा मूल्यवान रत्नकरण्डक है । यह सामुद्रिक यात्रा बहुत लम्बी और सदा कुशंकाओं से व्याप्त है । अतः उस रत्नकरण्डक को साथ में रखना अच्छा नहीं है। इसलिए नगर में जाऊँ और ऐसे प्रख्यात सत्य हरिश्चन्द्र और पूर्ण नीतिमान् मनुष्य की गवेषणा करूं, जिसके पास इस रत्नकरण्डक को धरोहर के रूप में रख सकू और पुनः लौटते समय अपनी निधि को सुरक्षित पा सकूँ ऐसा सोचकर मैं अपने रत्नकरण्डक को लेकर नगर में गया और वैसे सत्यवादी हरिश्चन्द्र की खोज करने लगा। मुझे नया प्रवासी जानकर एक किराने के व्यापारी ने, पूर्व परिचित की भाँति, 'स्वागत-स्वागत' कहा, मुस्कराता हुआ सामने आया, गले मिला और मेरा कुशल पूछने लगा। उसे भद्र पुरुष समझकर मैं उसकी दुकान पर गया उसने मुझे ऊचे आसन पर बिठाया और मैं उसके साथ सप्रेम बातचीत करने लगा। 'सारा सफेद-सफेद दूध होता है'--ऐसा विश्वास कर मैंने उससे अपनी बहुमूल्य वस्तु रखने के लिए प्रार्थना की और उसे वह दिखलाई । वह धूर्त शिरोमणि मेरी वस्तु रखने के लिए मन से तत्पर था किन्तु अपने आपको अनन्यसत्यवादी सिद्ध करते हुए सत्य से धवलित ललित वाणी से कहा-'बन्धुवर ! क्या आपने निधि रखने के लिए कहा ? ऐसी बात आप पुन: न कहें। किसी की वस्तु अपने पास रखने की मैंने पहले ही सौगन्ध कर रखी है। एकबार मैंने अपने समान सारे जगत को भद्र स्वभाव वाला समझकर किसी एक महानुभाव की धरोहर रखी, परन्तु उसके अति कट परिणाम से ज्यों-त्यों पार पाया है। उसके बाद इस प्रकार के कार्य को न करने की मैंने प्रतिज्ञा कर ली है। अतः आप कृपा कर अन्यत्र जाइए । धरोहर न रखने की प्रतिज्ञा के कारण मैं इसे किसी भी प्रकार स्वीकार नहीं कर सकता। उसकी उत्कृष्ट सत्यनिष्ठ दृष्टि का अनुभव कर मैंने अपना धन वहीं रखने के लिए उससे अनुरोध किया। उस समय एक बालिका घी खरीदने के लिए वहां आई। उस वंचक शिरोमणि ने मुझे प्रभावित करने के लिए एक मायापूर्ण व्यवहार प्रगट किया। उसने एक गूना पैसा लेकर उस लड़की को दुगुना घी दिया। घी लेकर कन्या चली गई। आश्चर्य से मैंने उससे कहा 'ओह ! तुम व्यापारी हो ? क्या तुम व्यापार वृत्ति को जानते हो ? अरे ! एक गुना पैसा लेकर तुमने दुगना घी दिया, यह कार्य कैसे अच्छा हो सकता है ? इससे व्यापारी नाम भी दूषित होता है और For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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