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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दूसरा उच्छ्वास नहीं गए । नगर के बाहिर भाग में एक सुरम्य स्थान को देखकर उन्होंने वहां एक झोंपड़ी बनाई । उसे मिट्टी और गोबर से लीप कर सब कुछ व्यवस्थित किया और सुखपूर्वक वहीं रहने लगें। आजीविका के निमित्त सेठ ने एक कुठार खरीदा । वह जंगल में जाकर लकड़ियों का गट्ठर लाता और नगर में उसे बेच आता। उससे जो कुछ (धन) मिलता, समयज्ञ भानुमती आय के अनुरूप व्यय करती हुई गार्हस्थ्य का पूर्ण संतोष के साथ संचालन करने लगी। देशान्तर में उन्हें कोई नहीं पहिचानता था। वे ऐसे कार्य को बिना लाज-शर्म के करते हुए अपना समय बिता रहे थे। सेठ मन्मन ने जब यह सुना कि जिनदत्त अपनी भार्या के साथ किसी अलक्षित जनापवाद से लज्जित होकर दुर्भाग्य से प्रताडित, बिना कुछ कहे ही सहसा रात्रि में भाग गया है, तब उसका कृपण मन प्रमुदित हो उठा । 'ओह ! अच्छा हुआ, बहुत अच्छा हुआ। अनायास ही मेरी मनोभावना फलवती हो गई । अब बेचारा कर्जदार जिनदत्त दातव्य धन और उसके ब्याज के भार से विक्षब्ध होकर पुनः नहीं लौटेगा। अब यह कल्पना केवल आकाश-कुसुम की भांति है कि यह जिनदत्त लौटकर अपने साहूकारों का ऋण ब्याज सहित चुकायेगा और अपने पुत्र को अपने घर ले जायेगा । अतः अब यह निस्सन्देह हो गया है कि रत्नपाल मेरे घर का दीपक है। भाग्य की कृपा से अपूरणीय क्षति पूरी हो गई। भाग्य की दुर्भर खाई समतल हो गई। निश्चित हो महान् कष्टों से संचित मेरे ऐश्वर्य का यही भविष्य में स्वामी होगा।' इस प्रकार कल्पना-मधुर भविष्य का चिन्तन करता हुआ निर्दय मन्मन बालक की रक्षा के लिए अनेक यत्न कर रहा था। प्रतिदिन बढ़ता हुआ, एक गोद से दूसरी गोद में जाता हुआ वह बालक बहुत प्रिय प्रतिभासित होने लगा। मन्मन ने बालक को संतुष्ट करने के लिए अनेक खिलौने मंगाये । उसे आकर्षक वस्त्रों से अलंकृत किया । उसने उसके हाथों में बलय गले में मोतियों की माला और कानों में बहुमूल्य कुण्डल पहनाकर उसे सज्जित किया। 'इसे नजर न लग जाए'--इसलिए ललाट और बांहों पर कज्जल की टीकियां लगाई। और अधिक क्या कहें उस बच्चे के पालन में नाम मात्र को भी कमी नहीं रहने दी। For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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