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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दूसरा उच्छ्वास पर रखी हुई पोटली को एक ओर रख दिया। 'आगे कहां जाना है, क्या करना है'----इस प्रकार वे दोनों विचार करने लगे। इतने में ही एक स्त्री ने अपने झरोखे से देखा कि कोई अपरिचित पथिक घर की वेदिका पर बैठे बातचीत कर रहे हैं। तत्काल वह वहाँ आई और आंखों से अस्नेह दिखाती हई वज्र की भांति कठोर वाणी में बोली 'आप बिना जान पहचान के इस घर की वेदिका पर कैसे बैठे हैं ? जो परिचित नहीं है, उन्हें हम स्थान नहीं दे सकते । इसलिए आप अपने किसी परिचित व्यक्ति के घर शीघ्र ही चले जाइए।' __ जिनदत्त ने सद्भावना से कहा-'बहन ! हम पथिक हैं । मध्याह्न वेला में विश्राम का यह उपयुक्त स्थान देखकर हम थोड़े समय के लिए यहाँ ठहरें हैं । क्योंकि मनुष्य मनुष्य का ही आश्रय चाहता है। हम स्वयं अपराह्न में आगे चले जायेंगे । अभी तुम अपने मन को उदार कर हमें न उठाओ।' उस स्त्री ने अपने अहंकार से उसका प्रतिरोध करते हुए कहा'मानवता का उपदेश बहत हो चुका । अनेक चोर अपना वेश बदलकर, मीठे बोलते हुए लोगों को लूटने के लिए यहाँ घूमते रहते हैं। इसलिए आप कोई दूसरा स्थान देखें, यहाँ एक क्षण भर के लिए भी न ठहरें ।' ___इस प्रकार गृहस्वामिनी द्वारा अपमानित होकर उन दोनों ने झट से अपनी पोटली उठाई और आगे चल पड़े । हाय ! जिनका भाग्य-दरिद्रता के कारण मंद हो चुका है, उन व्यक्तियों के दुःख को कौन पूछता है ? आपत्ति में अपने भी पराये हो जाते हैं, तब अपरिचित व्यक्तियों की बात ही क्या ? संसार ऐसा हो है । यहां की सारी लीला बादलों की छाया की तरह चंचल है । यहाँ गाढ स्नेह में भी अप्रीति का प्रादुर्भाव होता है, दिव्य आलोक में भी अन्धकार की रेखा अन्तहित रहती हैं और मधुर आलाप में भी कटु उक्ति का प्रसंग रहता है । धिक्कार है, धिक्कार है, तब भी संसारी व्यक्तियों की आखें क्यों बंद रहती हैं ? मनुष्य को पग-पग पर ऐसे सद्यस्क अनुभव पराभूत करते रहते हैं फिर भी उममें आन्तरिक वैराग्य परिस्फुरित क्यों नहीं होता ? ओह : अज्ञान का आवरण घना होता हैं । यह सब कुछ प्रत्यक्ष है फिर भी मोह से धृष्ट मति उसे ग्रहण नहीं करती। भानुमती को संबोधित करते हुए सेठ जिनदत्त ने कहा-'भायें ! अपने दिन अभी अनुकूल नहीं हैं। इसलिए इस प्रकार के, पहले कभी अनुभव में न आने वाले प्रसंग आ रहे हैं । फिर भी हमें विमन या दुर्मन नहीं होना है । For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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