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पहला उच्छ्वास
सखे ! यदि तुम विनिमय के बिना कुछ भी देना नहीं चाहते तो मेरी पत्नी का गर्भ (गर्भ में रहे बालक को) रखकर मुझे यथायोग्य धन दो।" __जिनदत्त की बात सुनकर मन्मन तत्काल ही सहर्ष सहमत हो गया। उसने कहा-- "मित्र ! तमने अच्छा निर्णय किया है। पुत्र के विनिमय से जो कुछ तुम चाहो वह शीघ्र ही लो, मैं देने के लिए तैयार हूं।"
उसी समय एक प्रतिज्ञा पत्र लिखा गया। उसमें लिखा था-जन्म के अनन्तर मेरा पुत्र मन्मन के घर पर पुत्र रूप में बड़ा होगा। जब वह युवा अवस्था को प्राप्त हो, अच्छी तरह से विद्या का अध्ययन करले, तब सेठ मन्मन उसे धन कमाने के लिए देशान्तर में भेजे । जब वह धन कमाकर अपने घर में लौटे और व्याज सहित सारा ऋण मन्मन को अर्पित करे तब ही वह अपने पिता के घर जा सकेगा।' इस प्रकार दोनों ने सम्मत होकर यह लेख लिखा। इस पर नगर के पाँच प्रमुख व्यक्तियों के साक्षी रूप हस्ताक्षर हुए और उसकी एक प्रति मन्मन ने और दूसरी जिनदत्त ने ली। उसके विनिमय से जिनदत्त ने हजार दीनार (सोने का सिक्का) प्राप्त किए। ___ इधर धन की चिन्ता से संतप्त भानुमती पति की चिर प्रतीक्षा कर रही थी। "आर्यपुत्र धन लेकर क्यों नहीं आए ? क्या सारी पृथ्वी हमारे लिए दरिद्रता से स्पृष्ट होगई है ? क्या सभी ने कृतज्ञता भुलादी है ? क्या सभी सहचरों ने आँखों को शर्म भी छोड़ दी है ?"
इतने में ही उसने देखा कि म्लान मुख लिए पतिदेव धीरे-धीरे भवन में प्रवेश कर रहे हैं। वह शीघ्र ही उनके सम्मुख गई और अधैर्य से उसने पूछा-"क्या हुआ ?"
अपने अकरणीय कार्य से बाधित होता हुआ, सेठ जिनदत्त मौन रहा। 'मेरे द्वारा विहित कार्य का, यह मातृ हृदया मेरी पत्नी, अनुमोदन करेगी या नहीं' इस आशंका से वह व्याकुल हो उठा। थोड़े समय के पश्चात् उसने अपनी पत्नी के सामने सारा वृत्तान्त ज्यों का त्यों कह डाला और उसे हजार दीनार दे दिए। अवसरज्ञ और विनीत भानुमती 'आप ही प्रमाण हैं'-इस प्रकार कहती हुई मौन हो गई ।
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