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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पहला उच्छ्वास दरिद्रता से दुःखित अपने पति को देखकर समयज्ञा भानुमती ने कहा"नाथ ! यह संसार ऐसा ही है । यहाँ की संपूर्ण प्रवृत्ति स्वार्थ- परायण होती है । भाग्य की अनुकूलता में सभी परकीय लोग स्वकीय बन जाते हैं । और प्रतिकूलता में अपने भी पराये बन जाते हैं, और तो क्या, विपरीत परिस्थिति में वस्त्र भी प्रतिकूल हो जाते हैं, तो भी हीन भावना नहीं लानी चाहिए, आशा रूपी रज्जु को नहीं तोड़ना चाहिए, प्रयत्न नहीं छोड़ना चाहिए | कभी प्रयत्न रूपी जल से सिंचित आशावल्ली फलीभूत हो सकती है । मैं सोचती हूँ कि मन्मन नाम का सेठ आपका परमप्रिय बाल साथी है । कदाचित् वह ऐसी विपत्ति में आपका सहायक हो सके। मेरे कहने से उसकी एक बार पुनः परीक्षा करनी चाहिए ।" ११ सेठ जिनदत्त मन्मन की क्लिष्ट कृपणता को जानता था, किन्तु विश्वस्त भार्या से बारबार प्रेरित होकर वह उसके घर की ओर जाने के लिए उत्कंठित हुआ । मार्ग में जाते हुए, ज्यों-ज्यों कृपण मन्मन का घर नजदीक हो रहा था त्यों-त्यों जिनदत्त का अन्तःकरण उद्विग्न बनता जा रहा था । उसने सोचा--" धिक्कार है, धिक्कार है, 'जिनदत्त !' तू जी रहा है। तू अधम से अधम याचना के कार्यों को स्वीकार कर रहा है। क्या याचना से मरण पवित्र नहीं है, अच्छा नहीं है ? वेग से चलते हुए सेठ के चरण वहीं स्तम्भित हो गए । धैर्य का आलम्बन ले उसने पुनः सोचा- 'इस आकुलता से बस !! पुरुष पुरुषार्थ के द्वारा निश्चित ही सभी दुःखों पर विजय पा सकता हैइस प्रकार वह सोचता हुआ आगे चला । विषाद से ज्यों-त्यों मन्मन सेठ के घर पहुँचा । भरे अन्तःकरण से वह खेदखिन्न जिनदत्त को आते देखकर मन्मन विस्मित हुआ । वह तत्काल उठा और संसंभ्रम उसके सामने गया और 'स्वागत' है ऐसा कहता हुआ उसको आसन देकर संतुष्ट किया । उसने उसके आगमन का कारण पूछा और मधुर वचनों से उसे आश्वासन दिया । जिनदत्त ने विचलित हृदय से अपनी मनोवेदना कह सुनाई । उसने कहा - " मित्रवर ! मेरा वृत्तान्त अकथनीय है । उसे मैं क्या कहूँ ? मैं विपत्ति के भयंकर जाल में गिर पड़ा हूँ । मेरे किए हुए सारे प्रयत्न विफल हो चुके हैं । अन्त में तुम मेरे बालसाथी और मेरी आशा के आलम्बन हो । ऐसा सोचकर तुम्हारे पास आया हूँ । तुम कुछ सामयिक सहायता दो जिससे कि मेरी गर्भवती पत्नी का सप्त- मासिक महोत्सव सुसम्पन्न हो सके । तुम्हारे For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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